2007 वन डे वर्ल्ड कप में बांग्लादेश से हार और पहले ही दौर में बाहर होने के बाद टीम इंडिया का आत्मविश्वास एकदम से गिर गया था। तीन महीने बाद फिर से एक बड़ा टूर्नामेंट टी-ट्वेंटी विश्व कप था और यह पहली बार ही हो रहा था। राहुल द्रविड़ कप्तानी छोड़ चुके थे और क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर तीसरी बार कप्तानी लेने को तैयार नहीं थे। हाँ, उन्होंने एक अच्छा काम किया था कि उन्होंने एक युवा विकेट कीपर बल्लेबाज का नाम सुझाया था जो टीम में 2-3 साल पहले ही आया था। हालांकि उस टीम में गंभीर, सहवाग, युवराज, हरभजन और जहीर जैसे अनुभवी और बड़े नाम भी थे पर क्रिकेट के भगवान ने माही का नाम कुछ सोच के ही सुझाया था! क्रिकेट की कुबेर संस्था बीसीसीआई ने भी भगवान की बात मान ली और धोनी को टीम का कप्तान बना दिया गया। उसके बाद जो हुआ वह तो इतिहास है।
भारतीय क्रिकेट ने उन ऊंचाइयों को छूना शुरू कर दिया जिसकी आकांक्षा तो हर क्रिकेट प्रेमी करता था पर उम्मीद नहीं! आपको यहां यह बात ध्यान रखना होगा कि भारतीय टीम का उस समय रिकॉर्ड होता था कि वह बहुपक्षीय टूर्नामेंट्स के फाइनल में तो पहुंचती थी पर फाइनल में ही दबाव के आगे बिखर जाती थी। वर्ल्ड कप 2003 का फाइनल इसका सबसे बड़ा उदहारण था। सौरव गांगुली ने टीम को आक्रमकता तो सीखा दी थी पर उस आक्रमकता में बुद्धिमत्ता का मेल कैसे हो, यह धोनी ने ही सिखाया। इसी लिए माही को ‘कैप्टन कूल’ भी कहा जाता है। टीम की स्थिति कितनी भी खराब हो कैप्टन कूल कभी भी दबाव नहीं लेते थे। उनके ऊपर टीम के हार और जीत का भी कुछ ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता था, हां वो हमेशा टीम को जीत की ओर ही ले जाते थे। यही कारण है कि धोनी की कप्तानी में टीम इंडिया ने लक्ष्य का पीछा करते हुए एक विश्व रिकॉर्ड बनाया था।
धोनी के ऊपर कवि शिव मंगल सिंह की ये पंक्तियां बिलकुल ठीक बैठती हैं-
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही।
वरदान मांगूंगा नहीं।।
बाकी धोनी की कहानी और रिकार्ड्स बहुत लम्बें हैं, आप ने कई बार सुना, पढ़ा और देखा भी होगा। तो उसकी चर्चा यहां नहीं…बस माही पर वैसे ही भरोसा करते रहिए जैसे आप पहले करते थे। एक अदद धीमी पारी के हिसाब से उन्हें जज मत करिए। उन्हें जिस दिन लगेगा कि उनके खेल का कोटा पूरा हो गया है तो वह बिना बताये ही अपना ग्लब्स टांग देंगे, जैसा कि उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में किया था।