‘जरीला’ मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े के चांगदेव चतुष्टय की तीसरी कड़ी है। शृंखला के इस तीसरे हिस्से में नायक चांगदेव अपने अस्तित्व की खोज में एक पहाड़ी इलाके में आ पहुंचा है। जहां वे एक कॉलेज में पढ़ाने का काम करता है। यह कॉलेज चांगदेव को अपने पिछले कॉलेज की तुलना में काफी अच्छा लगता है। कहा जा सकता है कि शिक्षक चांगदेव इस भाग में परिपक्व होता है। न सिर्फ अपने सहयोगी शिक्षकों बल्कि छात्रों के बीच चांगदेव की एक अच्छी छवि बनती है।
बतौर शिक्षक चांगदेव जो एक शैक्षणिक परिवेश से अपेक्षा करता है वह सबकुछ इस कॉलेज में है। छात्र भी होशियार हैं और पढ़ाने में उसका मन लगता है। हालांकि यहां भी शिक्षक और कॉलेज जातिवादी और क्षेत्रवादी बहस से प्रभावित हैं। इस रचना में आप कई जगह ब्राह्मण , मराठा, दलित और दूसरी जातियों का जिक्र देखेंगे। लेखक बताते हैं कि कॉलेज जैसे उच्च शिक्षा संस्थान जातिवाद की भेंट चढ़ गए हैं। अलग-अलग कॉलेजों में अपनी जाति और जान पहचान के लोगों को भरने की कवायद देखी जा सकती है।
इस भाग में आप पाएंगे कि चांगेदव ने खुद को बदलना सीख लिया है। समय के साथ चांगदेव कॉलेज के हिसाब से ढलने लगता है लेकिन उसका वेतन उसके लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है। चूंकि चांगदेव बैचन किस्म का व्यक्ति है इसलिए कुछ न कुछ उसे परेशान करता रहता है और सोचने पर मजबूर करता है। इसलिए पढ़ाने के लिए बढ़िया माहौल होने के बाद भी उसे वेतन की समस्या दिखाई देती है।
अचानक क्षेत्र में बिजली का संकट खड़ा हो जाता है और लंबे वक्त तक बिजली गायब रहती है। लोग इस परिस्थिति के साथ भी तालमेल बिठाने लगते हैं। लेकिन इस बीच चांगदेव अकेलेपन की चपेट में आ जाता है और घंटों सोचता है और उसे मालूम चलता है कि वह अपने खुद के बारे में कितना कम जानता है। वह अपने अतीत के बारे में काफी वक्त तक सोचता रहता है।
उपन्यास में चांगदेव अकेलेपन से परेशान दिखाया गया है। उसके साथ के कई शिक्षक अपनी गृहस्थी में व्यस्त हैं तो वहीं जो कुंवारे हैं वो लड़की देख रहे हैं। ऐसे में चांगदेव सोचता है कि शादी ही समाधान है। एक दिन वह भी अपने रिश्तेदारों के कहने पर लड़की देखने जाता है। लेकिन लड़की वाले मना कर देते हैं।
जैसा कि चांगदेव का स्वभाव है। वह बदलाव चाहता है और नौकरी से इस्तीफा दे देता है। अब वह एक नए कॉलेज में पढ़ाने की योजना बना रहा है। इस उपन्यास में आप पाएंगे कि चांगदेव दोराह पर खड़ा है जहां उसे जीवनसाथी और गृहस्थी के अभाव में अकेलापन लगता है वहीं वह खुद की आजादी भी चाहता है। वह खुद को औरों की तरह गृहस्थी में डुबा नहीं देना चाहता। हालांकि उपन्यास में उसका स्त्री और गृहस्थी की ओर आकर्षण बढ़ते देखा जा सकता है। उसे पत्नी, गृहस्थी और परिवार की अहमियत मालूम चलती है।
इस उपन्यास का नाम ‘जरीला’ इसलिए है क्योंकि यहां चांगदेव बधिया बैल की तरह है। जो कभी भी यौन संतुष्टि प्राप्त नहीं कर सकता। बधिया किया गया व्यक्ति दुनिया के साथ तालमेल बैठाना और आगे बढ़ना सीखता है चुपचाप लेकिन उसके भीतर विद्रोह जारी रहता है।
बता दें कि चांगदेव चतुष्टय की पहली कड़ी बिढार, दूसरी कड़ी हूल और चौथी कड़ी झूल है।
पुस्तक के बारे में-
लेखक- भालचंद्र नेमाड़े
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 299 रुपये (पेपरबैक)
पृष्ठ संख्या- 302