By : Rajeev Sharma
Edited By: Umesh Chandra
कुंभ मेला: भारतीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक
कुंभ मेला, भारतीय संस्कृति और धार्मिक परंपराओं का अद्वितीय पर्व है, जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है। यह पर्व विशेष रूप से प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ के रूप में विश्वभर में प्रसिद्ध है, जहां हर बारह साल में विशेष ज्योतिषीय संयोगों के आधार पर लाखों श्रद्धालु संगम में स्नान करने आते हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समय में, चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने प्रयागराज के महाकुंभ का वर्णन किया, जो उस समय के धार्मिक आयोजन और सम्राट की दानशीलता को प्रदर्शित करता है।
महाकुंभ में नागा साधुओं की पेशवाई एक प्रमुख आकर्षण होती है, जो न केवल धार्मिक आस्था, बल्कि भारतीय वीरता और संघर्ष का प्रतीक है। इन साधुओं ने ऐतिहासिक रूप से सनातन धर्म की रक्षा के लिए कई आक्रमणों का सामना किया, जिनमें १७वीं शताबदी का अफगान आक्रमण प्रमुख था। नागा साधुओं ने सनातन के लिए मुगलों ही नहीं अंग्रेजों से भी लोहा लिया। नागा साधुओं की वीरता और समर्पण की गाथा “नगर प्रवेश” की परंपरा के रूप में आज भी हर महाकुंभ का हिस्सा है, जो भारतीय समाज की गौरवपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है।
कुंभ मेला न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह भारतीय समाज के सामूहिक आस्था, संघर्ष और एकता की अभिव्यक्ति भी है, जो हर बार इस अद्वितीय पर्व के माध्यम से पुनः जीवित होती है।
कुंभ का इतिहास : सम्राट हर्षवर्धन की दानशीलता और भारतीय परंपराओं का प्रतीक
ह्वेन त्सांग ने कुंभ के अवसर पर प्रयाग में आयोजित महासम्मेलन का वर्णन किया है, जिसमें स्वयं सम्राट हर्षवर्धन भी शामिल हुए थे, और यह विवरण रुचिकर है। ध्यान देने योग्य यह है कि न केवल हर्षवर्धन, बल्कि कुंभ के इस अवसर पर यह परंपरा रही थी कि कन्नौज के पूर्ववर्ती शासक प्रयाग जाकर सिद्ध, ऋषि-महात्माओं के दर्शन व पूजन करते थे, साथ ही निर्धनों और अनाथों को दान भी देते थे। हर्षवर्धन की यह महाकुंभ में छठी बार भागीदारी थी, और इस बार चीनी यात्री ह्वेन त्सांग भी उनके साथ थे। ह्वेन त्सांग ने लिखा है कि सम्राट के अनुरोध पर वे महाकुंभ में शामिल होने गए थे। उनके विवरणों के अनुसार, तीर्थराज प्रयाग के विस्तृत क्षेत्र में यज्ञ मंडपों की स्थापना की गई थी, और अपार जनसमूह महाकुंभ के आयोजन में उपस्थित था। पूरे देश के महंत, ब्राह्मण, विद्वान, अनाथ आदि को आमंत्रित किया गया था, और उनके ठहरने व अन्य सुविधाओं का प्रबंध किया गया था। पूजा, चढ़ावा, दान आदि की सामग्रियों से सैकड़ों पर्णकुटी भरी हुई थीं। कई मूल्यवान रेशमी और सूती वस्त्रों के अलावा, सोना, चांदी, मोती, माणिक आदि भी अनेक धनिकों, राजाओं और सम्राट द्वारा दान व पुण्य के उद्देश्य से वहां लाए और इकट्ठे किए गए थे। यदि हम इन विवरणों पर ध्यान दें, तो कुंभ महापर्व के आयोजन की गरिमा में, न तो सम्राट हर्षवर्धन के काल में कोई कमी थी, और न ही आज तक इसमें किसी प्रकार का व्यवधान या अनुत्साह देखा गया है। कहीं साधु-संतों के आश्रम थे, कहीं यात्रियों के रैन-बसेरे, और देवताओं के लिए भी स्थान निर्धारित किए गए थे। स्वाभाविक रूप से, सम्राट, उनके परिवारजनों और मित्रों के लिए कुंभ में ठहरने, स्नान करने तथा आयोजन के विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अलग और विशेष व्यवस्था की गई थी। सुरक्षा और सुविधा को ध्यान में रखते हुए सम्राट के शिविर, उनके दामाद ध्रुव भट्ट के शिविर तथा मित्र राजा कुमारराज भास्कर वर्मन के शिविर लगाए गए थे।
सम्राट हर्षवर्धन की दानशीलता: कुंभ में धर्म समन्वय और त्याग की मिसाल
कुंभ के आयोजन में सम्राट के धर्म समन्वय का अद्भुत रूप देखने को मिलता है। ह्वेन त्सांग जैसे प्रमुख बौद्ध भिक्षु उनके साथ थे, और आयोजन के पहले दिन बुद्ध प्रतिमा का अभिषेक किया गया, उनका सम्मान प्रदर्शन मूल्यवान वस्त्रों से किया गया, और पुष्पांजलि अर्पित की गई। आयोजन के दूसरे दिन भगवान सूर्य की पूजा-उपासना की गई, तथा तीसरे दिन भगवान शिव का अभिषेक और पूजन किया गया। यज्ञ-पूजन के बाद विपुल दान दक्षिणाओं का वितरण संतों, साधकों और जरूरतमंदों के बीच किया गया। दान में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया, चाहे वे बौद्ध भिक्षु हों या उपासक साधु; प्रत्येक व्यक्ति को १०० स्वर्ण मुद्राएं, एक मुक्ता, एक जोड़ा वस्त्र और विभिन्न प्रकार के व्यंजन दिए जा रहे थे। उल्लेखों के अनुसार, एक महीने तक प्रतिदिन दीन-दुखियों को दान देने का सिलसिला चलता रहा, और यह दान इतना अधिक था कि राजकोष खाली हो गया। जब सम्राट के पास दान करने के लिए कुछ नहीं बचा, तो उन्होंने अपनी मुकुट-मणी तक दान कर दी। अपने शरीर पर पहने गए गहनों और मूल्यवान वस्त्रों का भी उन्होंने दान कर दिया, और स्थिति यह हो गई कि उन्हें अपनी बहन राज्यश्री से पुराने वस्त्र लेकर पहनने पड़े। सम्राट को बिना किसी उपहार के देख कर उनके साथ आए मांडलिक राजाओं ने दानपत्रों से राजसी चिन्हों को मोल लेकर फिर से सम्राट को भेंट कर दिए। हर्षवर्धन कुंभ के आयोजन से हाथ खाली ही राजधानी लौटना चाहते थे, और जो भेंट उन्हें प्राप्त होती, उसे भी वे दान में दे देते रहे। यह दानशीलता, अंगराज कर्ण के अलावा, अन्य किसी के बारे में इस प्रकार से वर्णित नहीं की जाती है।
ज्योतिषीय महत्व
अब इस आयोजन की महत्ता और इतिहास के दृष्टिकोण से इसके महत्व पर चर्चा करते हैं। लेकिन उससे पहले, उस हर्षकालीन महाकुंभ आयोजन की कुछ विशेषताओं को जान लेते हैं। जैसा कि सभी जानते हैं, महाकुंभ पर्व हर बारह साल में एक बार होता है, जबकि अर्धकुंभ हर छह साल के अंतराल में आयोजित होता है। प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक आदि स्थानों पर, इन बड़े अवसरों पर, प्राचीन काल से ही बड़े मेले लगते आए हैं। यदि ज्योतिषीय दृष्टिकोण से देखा जाए, तो पूर्ण कुंभ पर्व का विशेष महत्व है। जब बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य तथा चंद्रमा मकर राशि में होते हैं, तो उस नक्षत्र योग में पूर्ण कुंभ आयोजित होता है। स्वाभाविक रूप से, हर वर्ष माघ के महीने में सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं, लेकिन बृहस्पति का मेष राशि पर आना बारह साल में एक बार ही होता है, तभी महाकुंभ महापर्व का आयोजन होता है। इसके अतिरिक्त, कई ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति आदि के आधार पर विशेष योग भी बनते हैं। उसी विशेष ग्रहों का संयोग हर्षकालीन महाकुंभ में था वही संयोग इस वर्ष २०२५ प्रयाग महाकुंभ में बना है।