बिहार की हार: कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए सबक या नया मौका?

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बिहार की हार: कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए सबक या नया मौका?
बिहार की हार: कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए सबक या नया मौका?

बिहार चुनाव में करारी हार के बाद यह सवाल फिर खड़ा हो गया है कि क्या यह नतीजा कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए चेतावनी है या रणनीति सुधारने का अवसर? क्या पार्टी सोच-समझकर नई प्लानिंग पर काम कर रही है, या फिर वही पुरानी गलतियां दोहराई जा रही हैं? क्या कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति बचाने के बजाय राज्यों में जमीनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है, या इसी प्रक्रिया में वह अपना पारंपरिक जनाधार और सहयोगी दोनों खो रही है? इन सवालों के बीच पहले जानते हैं कि बिहार नतीजों के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के बीच कैसा माहौल बना।

JMM का पहला बड़ा झटका

मतदान से ठीक पहले कांग्रेस खेमे को सबसे बड़ा आघात झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की ओर से लगा। झामुमो ने बिहार में सीट-sharing से खुद को अलग करते हुए कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाए। पार्टी का कहना था कि बातचीत के दौरान उनके साथ “समान साझेदार” जैसा व्यवहार नहीं हुआ और पुराने वादों पर अमल नहीं किया गया। इस घटना ने गठबंधन में बढ़ती असंतुष्टि और क्षेत्रीय सहयोगियों के प्रति अपनाए जा रहे रवैये को साफ कर दिया। झामुमो ने यह भी संकेत दिया है कि वह झारखंड समेत राष्ट्रीय मंचों पर अपनी भूमिका पर नया मंथन करेगा।

शिवसेना (UBT) ने भी जताई नाराजगी

शिवसेना (यूबीटी) ने बिहार के नतीजों को विपक्ष के लिए चेतावनी बताते हुए कांग्रेस को आड़े हाथों लिया। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहा कि कई राज्यों में कांग्रेस इकाइयाँ बिना परामर्श के फैसले लेती हैं—जैसे कई सीटों पर अकेले लड़ने का निर्णय—जिससे संयुक्त रणनीति कमजोर होती है।
उद्धव ठाकरे बीएमसी चुनाव में MNS के साथ गठबंधन के समर्थक हैं, लेकिन कांग्रेस इसका विरोध कर रही है। उसका कहना है कि राज ठाकरे के साथ आने से उत्तर भारतीय और अल्पसंख्यक वोटों को नुकसान होगा। इस मतभेद के कारण महाराष्ट्र में MVA की स्थिरता भी सवालों में पड़ गई है।

सपा का सख्त रुख

समाजवादी पार्टी ने खुले शब्दों में कहा है कि इंडिया गठबंधन में “गंभीर सुधार” जरूरी है। अखिलेश यादव ने बिहार में प्रशासनिक गड़बड़ियों का हवाला देते हुए चेताया है कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो भविष्य के चुनाव प्रभावित हो सकते हैं।
विपक्ष के भीतर एक नई बहस भी शुरू हो गई है—जहां क्षेत्रीय दलों, खासकर जिनकी राज्यों में मजबूत पकड़ है, को राष्ट्रीय रणनीति पर अधिक प्रभाव होना चाहिए। इस दिशा में सपा एक सक्रिय भूमिका निभा रही है।

AAP की स्वतंत्र राह

आम आदमी पार्टी ने बिहार में अलग लड़ने का फैसला लेकर इंडिया गठबंधन की मुश्किलें और बढ़ा दीं। पार्टी का कहना है कि वह अपने राज्य विस्तार को किसी बड़े लेकिन ढीले-ढाले राष्ट्रीय मंच के लिए बलिदान नहीं कर सकती। AAP की यह स्वायत्तता अन्य क्षेत्रीय दलों को भी प्रेरित कर सकती है, अगर सीट बंटवारे और समन्वय की पुरानी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ।

टीएमसी की दावेदारी

टीएमसी और कांग्रेस के बीच पश्चिम बंगाल में पहले से ही तनातनी है, लेकिन अब TMC ने राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाना शुरू किया है। पार्टी का मानना है कि अगर इंडिया गठबंधन की बागडोर ममता बनर्जी संभालें तो नतीजे अधिक प्रभावी हो सकते हैं। सपा और RJD अक्सर टीएमसी की लाइन का समर्थन करते हैं, जिससे कांग्रेस की दिक्कतें और बढ़ जाती हैं।

कांग्रेस की रणनीति आखिर क्या है?

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को गठबंधन का स्पष्ट फायदा मिला था। पर विधानसभा चुनावों में पार्टी कहीं सहयोगियों को साथ नहीं रख पाई। हरियाणा और दिल्ली में AAP के साथ समझौता अंतिम समय तक नहीं हो सका—हरियाणा में कांग्रेस सीटें छोड़ने को तैयार नहीं थी और दिल्ली में AAP।

नतीजा—लगातार हार।

बिहार में भी वही तस्वीर दिखी। इसका नुकसान तो कांग्रेस को हुआ, लेकिन एक तरह से वह खुद को फिर मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित करने में कामयाब भी हुई है। राजनीतिक चर्चा में कांग्रेस का असर बढ़ा है और कई मतदाता क्षेत्रीय दलों की बजाय कांग्रेस की ओर देखने लगे हैं।
लेकिन संगठन की कमजोरी और बूथ स्तर पर ढांचे की ढील ने वोटों में इसे बदलने नहीं दिया।

अगर कांग्रेस जमीनी स्तर पर अपने संगठन को फिर मजबूत कर लेती है तो अगला लोकसभा चुनाव उसके लिए बेहतर हो सकता है। लेकिन अगर सुधार नहीं हुआ, तो 2014 से शुरू हुआ हार का दौर और लंबा खिंच सकता है। इतना तो साफ है कि दशकों तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस इन बदलावों और चुनौतियों को भलीभांति समझते हुए ही नई दिशा चुनने की कोशिश कर रही है।