चंदौली में मजदूर की मौत पर प्रशासन मौन, पुलिस की लाठी चली, संवेदना नहीं

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उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में गरीब मजदूर भगत की मौत न सिर्फ एक जीवन के अंत की खबर है, बल्कि यह प्रशासनिक निष्क्रियता, पुलिस की संवेदनहीनता और सिस्टम की चुप्पी का आईना भी है। भोगवारे गांव के रहने वाले भगत, जो गोलगप्पे बेचकर अपने परिवार का पेट पालते थे, 19 जून को दिनदहाड़े दो युवकों द्वारा बेरहमी से पीटे गए। लेकिन पांच दिनों तक एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई और अंततः घायल भगत की जान प्रशासन की ढिलाई और पुलिस की उदासीनता ने ले ली।

पीड़ित की मौत और लाठीचार्ज: संवेदना के बदले दमन

भगत की मौत के बाद जब ग्रामीणों ने न्याय की मांग की, तो प्रशासन ने संवेदना के बदले लाठीचार्ज से जवाब दिया। सवाल यह नहीं कि लाठी क्यों चली, सवाल यह है कि न्याय क्यों नहीं चला? सीओ की मौजूदगी में अलीनगर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बल प्रयोग किया। जिसके बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या पुलिस का काम पीड़ितों को डराना है या उन्हें न्याय दिलाना?

एफआईआर तक के लिए ‘सिफारिश’ जरूरी?

स्थानीय लोगों का आरोप है कि स्थानीय सभासद की सिफारिश के बाद ही एफआईआर दर्ज हो सकी। इससे यह सवाल उठता है कि क्या एक आम नागरिक को अब इंसाफ के लिए राजनीतिक मदद की जरूरत है?

एक आरोपी की गिरफ्तारी कर पुलिस अब राहत की सांस ले रही है, लेकिन भगत की मौत के लिए जिम्मेदार असली चेहरों की पहचान कौन करेगा? क्या कोतवाली प्रभारी पर कोई जवाबदेही तय होगी? क्या यह एक ‘क्लोज केस’ बनाकर फाइल में दफन हो जाएगा?

भगत की मौत को महज ‘एक मजदूर की मौत’ कहना सच्चाई से मुंह मोड़ना होगा। यह एक सिस्टम की नाकामी, एक प्रशासन की निष्क्रियता और एक समाज की चुप्पी का नतीजा है। आज भगत मरा है, कल कोई और मरेगा — अगर हम सवाल नहीं उठाएंगे। यह सिर्फ रिपोर्ट नहीं, आईना है उस तंत्र का, जो तब तक नहीं जागता जब तक सड़कें जलने न लगें।