एक बेहद बदनाम अफ़सानानिगार सआदत हसन Manto जिंदगी के महज 42 साल, 8 महीने और 7 दिन जीने के बाद बेहद गंदी शराब पीकर लाहौर के हॉल रोड स्थित 31, लक्ष्मी मेंशन में 18 जनवरी 1955 को मर गया।
हमारे समाज की नंगी सच्चाई लिखने वाला Manto खुद की कलम से खुद के बारे में लिखता है, “ऐसा होना मुमकिन है कि एक दिन सआदत हसन मर जाए और मंटो ता-जिंदगी जिंदा रहे।”
अब इसे महज इत्तेफाक ही कहेंगे कि Manto ने अफसाना ‘खोल दो’ में हमारे कथित तहजीब की धज्जियां उड़ा दी, जब नब्ज चलने की गवाही देने के लिए सकीना अपना इजारबंद खोलती है और सामने खड़े अब्बा शर्मसार हो चुके डॉक्टर से कहते हैं ‘मेरी बेटी जिंदा है’।
Manto ने केवल हमारे समाज के भयानक सच को कागज पर उकेरा
इतना भयानक लिखने के बाद भी मंटो का तुर्रा तो दखिए कि जब वो उतनी ही अकड़ के साथ कहते हैं, “मैं सोसाइटी की अंगिया क्या उतारूंगा, जो पहले से तार-तार है। मैं उसे रफू करने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा नहीं, दर्जी का काम है।”
हो सकता है कि Manto के लिखे अल्फाज शराफत का लबादा ओढ़े इस समाज को चुभें लेकिन वो हद दर्जे तक सच है और यकिन मानिए यही सच है।
अगर आप मंटो से इत्तेफाक न रखते हों तो रामायण या महाभारत को पढ़कर देख लीजिए। सीता और द्रौपदी को केंद्र में रखकर लिखे गये इन महाकाव्यों में सीता के हरण और द्रौपदी के चीरहरण का व्यापक उल्लेख मिलता है। आखिर क्यों इन महान ग्रंथों में एक स्त्री को अबला की तरह दिखाया गया है।
Manto भी अपनी कहानियों में अक्सर स्त्री के चरित्र को कुछ इस तरह से उतारते हैं, “यदि मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर दिन अपने शौहर से मार खाती है या फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिये कोई हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन वहीं जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने पति से लड़-झगड़ कर सिनेमा देखने चली जाती है तो मेरे ख्याल में उसके लिए प्यार आता है”।
Manto के भीतर मर्द और औरत एक साथ पैवस्त थे
ता-जिंदगी मंटो अपनी कहानियों में इन्हीं औरतों के मनोविज्ञान और मर्दों से उसके संबंध को लिखते रहे। मंटो का तल्ख अंदाज-ए-बयां इस बात की गवाही देता है कि उनके भीतर एक मर्द के साथ एक औरत भी पैवस्त है।
तथाकथित साहित्य के कुछ एक हल्कों में कहा जाता है कि मंटो अश्लील राइटर थे। लेकिन जो भी ये इल्जाम मंटो पर लगाते हैं उन्हें शायद ये नहीं पता कि मंटो जो तीन बेटियों के बाप थे और उनकी परवरिश उन्हीं की सरपरस्ती में तब तक हुई जब तक वो जिंदा थे।
Manto ने जो लिखा वो गहरा सच हमारे इस समाज का था, जिसे वो सरपट अपनी कलम से पन्नों पर उतारते हुए इस दुनिया से चले गये।
हम चाहे मंटो को हजारों बद्दुआएं दें, लाखों लानतें दें लेकिन हम अक्सर ये अपने बड़ों से सुनते हैं कि गुजरा हुआ जमाना बेहतर था हमारे आज से और यह बात हर जमाने के साथ लागू होती है।
तभी तो मंटो खुद भी कहते हैं “जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ नहीं तो मेरे अफसाने पढ़िए और अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि जमाना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है।”
सअदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पंजाब के लुधियाना के पास एक गांव समराला में गुलाम हसन के घर हुआ था। मंटो के पिता ने दो शादियां की थीं शायद यही वजह था कि मंटो गुलाम हसन से दूर औऱ अपनी अम्मी के ज्यादा नजदीक थे। मंटो खुद अपने अब्बा के बारे में बताते हैं, “ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तगीर थे।
पढ़ने लिखने में बहुत औसत थे Manto
मंटो को कभी भी पढ़ाई-लिखाई का ज्यादा शौक नहीं था। अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में इंटरमीडिएट के इम्तिहान दो दफे फेल होकर पास हुए। आगे की पढ़ाई के लिए साल 1931 में अमृतसर के हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। किसी तरह से वहां से भी पास हुए औऱ आगे की तालीम के लिए आ पहुंचे अलीगढ़।
लेकिन अलीगढ़ में दाखिले से पहले ही वह “तमाशा” नाम का अफसाना अपनी डायरी में दर्ज कर चुके थे और रूसी साहित्य को पढ़े चुके थे।
अलीगढ़ में कदम रखने से पहले मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां को पढ़ डाला था। फरवरी 1934 में मंटो का दाखिला अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुआ। यहीं उनकी मुलाकात अली सरदार जाफ़री से हुई।
अलीगढ़ उस समय उर्दू लिट्रेचर के लिहाज से प्रगतिशील माना जाता था और यहीं पर मंटो की कलम ने रफ्तार पकड़ी। “तमाशा” के बाद मंटो का दूसरा अफ़साना “इंकलाब पसंद” साल 1935 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ।
इसके बाद साल 1936 में “आतिशपारे” के नाम से मंटो का पहला कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ। अलीगढ़ में पढ़ने के दौरान Manto को टीबी हो गई और एक साल पूरे होने से पहले ही उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी। पिता गुलाम हसन ने उन्हें अलीगढ़ से आबोहवा बदलने के लिए पहले कश्मीर भेजा और फिर जब मंटो ठीक हो गये तो उन्हें अमृतसर वापस बुला लिया।
मंटो का मन घर में नहीं लगा और वहां से वो लाहौर चले गये, जहां उन्होंने कुछ दिनों के लिए “मुसव्विर” नाम की एक मैगजीन का संपादन किया। मन वहां से भी उचट गया और वह मायानगरी बंबई (मुंबई) पहुंच गये।
चार साल बंबई में फ़िल्म लिखने के बाद जनवरी 1941 में दिल्ली चले गये ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी करने। यहां भी मंटो मजह 17 महीने ही बिता पाये कि उपेंद्रनाथ अश्क से झंझट हो गया और फिर जुलाई 1942 को वापस बंबई चले गये।
साल 1948 में दंगे के बाद Manto पाकिस्तान चले गये
साल 1947 में देश आजाद हुआ लेकिन कई गहरे जख्मों के साथ। हिंदू-मुसलमान के दंगे और फसाद के कारण दहशतजदा Manto जनवरी 1948 में पाकिस्तान चले गये। पाकिस्तान जाने के बाद मंटो ने “सियाह हाशिए”, “नगी आवाजे”, “लाइसेंस”, “खोल दो”, “टेटवाल का कुत्ता”, “मम्मी”, “टोबा टेक सिंह”, “फुंदने”, “बिजली पहलवान”, “बू”, “ठना गोश्त’, ‘काली सलवार” और “हतक” जैसी तमाम अफसाने लिखे।
मंटो के कुल 5 ऐसे अफसाने थे, जिन्होंने उन्हें कोर्ट के कटघरे में खड़ा कर दिया। ये अफसाने थे “काली शलवार”, “धुआं”, “बू”, “ठंडा गोश्त” और “ऊपर, नीचे और दर्मियां”।
Manto ने अपनी आंखों से बंटवारे के जिस कत्ल-ओ-गारत को देखा थे, जिस दर्द को झेला था उसे उन्होंने कहानियों में छुरी सरीखे तीखे अंजाद में लिखा और इसी कारण से वह काफी हद तक अश्लील भी कहे गये। लेकिन सही मायने में देखा जाए तो मंटो जितना हिम्मती अफसानानिगार पैदा ही नहीं हुआ जो नंगे सच को लिखने की जुर्रत कर सके।
मंटो के समकालीन राजींदर सिंह बेदी ने “एक चादर मैली सी” जिस पर बाद में फिल्म भी बनी लेकिन वो भी सीधी और सपाट लहजे में कही गई कहानी थी, उसमें वो धार नहीं था जो मंटो के अफसाने में पाये जाते हैं।
मंटो की कहानियों में “मंटो के अफसाने”, “धुआं”, “अफसाने और ड्रामे”, “लज्जत-ए-संग”, “सियाह हाशिए”, “बादशाहत का खात्मा”, “खाली बोतलें”, “लाउडस्पीकर”, “सड़क के किनारे”, “याजिद”, “पर्दे के पीछे”, “बगैर उन्वान के”, “बगैर इजाजत”, “बुरके”, “शिकारी औरतें”, “सरकंडों के पीछे”, “शैतान”, “रत्ती”, “माशा”, “तोला” और “मंटो की बेहतरीन कहानियां” शामिल हैं।
बंबई फिल्म इंडस्ट्री ने Manto को रोकने की कोशिश नहीं की
बड़े ही अफसोस की बात है कि हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में मंटो के अशोक कुमार, श्याम (कई फिल्मों में विलेन), के आसिफ, नरगिस और न जाने कितने Manto के हमराह हुआ करते थे लेकिन जब मंटो पाकिस्तान जाने लगे तो किसी ने भी उन्हें रोकने या भरोसा देने की कोशिश नहीं की कि रूक जाओ ये मुल्क तुम्हें सर आंखों पर रखेगा।
दंगों से डरे-सहमे मंटो परिवार के साथ केवल इसलिए पाकिस्तान जाने को मजबूर हो गये क्योंकि उनका नाम सआदत हसन था। ये कड़वी बात है लेकिन सच भी यही है।
मजहबी फसाद से डरे मंटो पाकिस्तान चले तो गये लेकिन उन्हें वहां न आराम मिला और न ही इज्जत। मंटो खुद लिखते हैं, “मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूं। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूं।”
हिंदोस्तान से दूर एक कलमकार लिखने के लिए छटपटाता रहा, कलम पर हुकूमत ने पाबंदी लगा दी थी। जिन्दगी के चंद आखिर सालों में मंटो ने इस्मत चुगताई को लिखा, “कोई इंतजाम करो और मुझे हिंदुस्तान बुला लो” मगर जिंदगी के 7 साल, 8 महीने और 9 दिन लाहौर की गंदी शराब पीकर मंटो ने अपने लीवर को खाक में मिला दिया।
मौत से ठीक 5 महीने पहले 18 अगस्त 1954 को मंटो ने खुद अपनी कब्र के लिए एक पत्थर खुदवाया, जिस पर लिखवाया, “यहां सआदत हसन मंटो दफन है. उसके सीने में फ़ने-अफ़सानानिगारी के सारे इसरारो रमूज़ दफ़न हैं। वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे दबा सोच रहा है, कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा !”
लेकिन मौत के बाद मंटो की कब्र पर वह पत्थर नहीं लगा। उसकी जगह पर मंटो की कब्र पर लिखा गया, “यह सआदत हसन मंटो की कब्र है जो अब भी समझता है कि उसका नाम लौह-ए-जहां पे हर्फ-ए-मुकर्रर नहीं था।”
पाकिस्तान ने मंटो की मौत के 57 साल बाद निशान-ए-इम्तियाज़ दिया मानो हुक्मरान अपनी गलती के लिए मंटो से माफी मांग रहे हों। मंटो की मौत के बाद अफसोसनाक वाकया देखिये कि जिस पाकिस्तान में मंटो ने लिखने के एवज में जेल की हवा खाई, उसी पाकिस्तान की रेडियो ने उनकी मौत पर आधे घंटे का प्रोग्राम प्रसारित किया।
वहीं जब हिंदोस्तान में ऑल इंडिया रेडियो ने मंटो के मौत की खबर दी, उस वक्त बंबई में एक तांगे वाले अपना तांगा रोक दिया। जब सवारियों ने पूछा कि अरे बीच रास्ते में कैसे रोक रहे हो तो उसने कहा, “अब आगे नहीं बढ़ पाएंगे हमारा मंटो मर गया”।
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