”इस घनघोर सृष्टि तत्व के एक अंग के रूप में हमारा अस्तित्व है। ….. मैं अनादि बेचैन हूं। …. इस संकुचित , खंडित समाज के जीवन में मुझे अपना संपूर्ण अस्तित्व उड़ेलना नहीं आता। मैं किसी का बंधा हुआ नहीं हूं। ….. मुझे शुद्ध जीव बना दो, जिससे मैं खालिस जीव तत्व बन जाऊंगा।” मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े अपने चांगदेव चतुष्टय की चौथी कड़ी ‘झूल’ को खत्म करते हुए ये लिखते हैं।
उपन्यास झूल में मुख्य किरदार चांगदेव पाटिल की जीवन के अस्तित्व की खोज इस मोड़ पर आखिर खत्म होती है कि वह प्रार्थना करता है कि उसे खालिस जीव बना दिया जाए। वह इस दुनिया में खुद को बांधना नहीं चाहता न ही खुद को इस संसार के लिए खपा देना चाहता है। इस उपन्यास में लेखक नेमाड़े के अस्तित्ववादी चिंतन की झलक दिखाई देती है। उपन्यास में ‘होने’ और ‘नहीं होने’ का द्वन्द्व आपको दिखाई देगा।
इस निरर्थक संसार में चागंदेव बेचैन है और अपने अस्तित्व के संकट का सामना करता है। चांगदेव खुद को जानने और जिंदगी का अर्थ पाने में जुटा रहा है। उपन्यास में चांगदेव अपने बारे में बताता है कि वह अपने तक ही सीमित रहने वाला व्यक्ति है। उसका कहना है कि इंसान खुद सही रहे बाकी किसी चीज की जरूरत ही क्या है।
झूल में चांगदेव एक नए कॉलेज में प्रोफेसर बनकर आता है। यहां वक्त बिताते हुए चांगदेव को लगने लगा है कि कॉलेज के पढ़ाने के काम में कोई खु्द्दारी नहीं है। चांगदेव के मुताबिक,” हम किताबें पढ़-पढ़कर केवल ज्ञानदान करने वाले हिजड़े बन गए हैं”। इस उपन्यास में आप पाएंगे कि उच्च शैक्षणिक संस्थानों का प्रदेश की राजनीति से कितना गहरा गठजोड़ है। राजनेता अपने मन मुताबिक वाइस चांसलर की नियुक्ति करते हैं। कॉलेज राजनीति का ऐसा अड्डा बन चुके हैं कि परीक्षा आयोजित करने के लिए भी सुरक्षा की जरूरत पड़ती है।
कॉलेज के घोर जातिवादी माहौल में रहते हुए चांगदेव का मानना है कि जातिवाद समाज में सिर्फ बेवकूफ लोगों को बढ़ावा देता है। वह डॉ. अंबेडकर के विचार से सहमति रखता है कि किसी समाज के जिंदा रहने या मरने से ज्यादा अहमियत यह रखता है कि वह किस स्तर पर और किस गुणवत्ता के साथ जिंदा रहता है। चांगदेव के मुताबिक किसी एक जाति को दोष देने से बेहतर है कि सभी जातियों को समान स्तर पर लाया जाए।
चांगदेव का व्यक्तित्व किस तरह का है उसकी एक बानगी उसके और राजेश्वरी के प्रसंग से भी मिलती है। जब राजेश्वरी उससे मिलने आती है वह सोचता रहता है कि यह किसके लिए इतनी सजी है। वह उससे कहता है कि व्यक्ति को अपना बोझ खुद उठाना होता है।
जीवन जीने के बारे में चांगदेव कहता है कि हम कितना मशीनी जीवन जीते हैं। उसका मानना है कि आजादी खुद हासिल करनी पड़ती है। उपन्यास में चांगदेव को आसपास के जीवन और लोगों में कोई मूल्य या चेतना नहीं दिखती। समाज की यह कमी चांगदेव को नाउम्मीदी से भर देती है। चांगदेव इस नतीजे पर पहुंच गया है कि ये जीवन अर्थहीन ही है।
बता दें कि चांगदेव चतुष्टय की पहली कड़ी बिढार, दूसरी कड़ी हूल और तीसरी कड़ी जरीला है।
पुस्तक के बारे में-
लेखक- भालचंद्र नेमाड़े
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 299 रुपये (पेपरबैक)
पृष्ठ संख्या- 240
‘बिढार’ में आदर्शवाद की निरर्थकता और Counter Culture की नाकामी बताते हैं भालचंद्र नेमाड़े
Book Review:’हूल’ में अपने मूल्यों को बचाने की कवायद करता दिखता है चांगदेव पाटिल
‘जरीला’ में दुनिया के साथ तालमेल बैठाते हुए आंतरिक विद्रोह को जारी रखता है चांगदेव