ऑपरेशन सिंदूर के ज़रिए पाकिस्तान में छिपे आतंकी ठिकानों पर जबरदस्त प्रहार करने के बाद भारत अब अगला कदम उठा चुका है। यह लड़ाई अब सिर्फ सीमाओं तक सीमित नहीं रही — प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारत ने पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेनकाब करने का प्लान बना लिया है।
इस खास कूटनीतिक अभियान में सबसे दिलचस्प बात ये है कि इसमें सिर्फ बीजेपी नहीं, बल्कि विपक्ष के बड़े नामों को भी शामिल किया गया है — जिनमें कांग्रेस के शशि थरूर और AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी सबसे अहम चेहरे हैं। मोदी सरकार के कट्टर आलोचकों को इस मिशन का हिस्सा बनाना सिर्फ राजनीतिक संतुलन नहीं, बल्कि रणनीति का हिस्सा है।
थरूर की अंतरराष्ट्रीय पकड़, कूटनीतिक अनुभव बना ट्रम्प कार्ड
शशि थरूर का नाम सुनकर कई लोग चौंक सकते हैं, लेकिन जो उन्हें करीब से जानते हैं, वे समझते हैं कि पीएम मोदी ने ये चुनाव एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया है। थरूर सिर्फ एक लेखक और सांसद नहीं हैं — वह एक अनुभवी कूटनीतिज्ञ हैं, जिनका अनुभव संयुक्त राष्ट्र में दशकों तक फैला हुआ है।
- थरूर 1978 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संगठन (UNHCR) से जुड़े और 1980 के दशक में सिंगापुर में UNHCR के प्रमुख रहे।
- 1989 में वह अवर महासचिव के विशेष सहायक बने और यूगोस्लाविया में शांति प्रक्रिया का हिस्सा रहे।
- 2002 में वे संयुक्त राष्ट्र के जन-सूचना विभाग के अवर महासचिव बनाए गए।
- इतना ही नहीं, 2006 में वे संयुक्त राष्ट्र महासचिव की रेस में दूसरे स्थान पर रहे थे।
- थरूर की यही अंतरराष्ट्रीय साख और भाषण की पकड़ उन्हें इस मिशन में सबसे प्रभावशाली बनाती है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद उन्होंने विदेशी मीडिया में भारत की स्थिति को मजबूती से रखा है — और मोदी सरकार के इस कदम का समर्थन करते नजर आए।
ओवैसी: जब राष्ट्रभक्ति ने सबको चौंकाया
अगर थरूर की भागीदारी चौंकाती है, तो असदुद्दीन ओवैसी की उपस्थिति उससे भी ज़्यादा चर्चा में है। एक तरफ़ वो मोदी सरकार के विरोधी माने जाते हैं, वहीं ऑपरेशन सिंदूर के बाद उनकी राष्ट्रभक्ति वाली छवि ने सबको चौंका दिया।
- उन्होंने खुले मंचों और टीवी चैनलों पर पाकिस्तान को कड़ी फटकार लगाई।
- ओवैसी ने कहा था कि पाकिस्तान को इतना सख्त सबक मिलना चाहिए कि वो दोबारा ‘पहलगाम’ जैसी हरकत करने की हिम्मत न करे।
- उनकी इस आक्रामक राष्ट्रवादी लाइन ने बीजेपी के कई नेताओं को भी प्रभावित किया। यही कारण है कि इस प्रतिनिधिमंडल में उनकी मौजूदगी केवल एक ‘मुस्लिम चेहरा’ के रूप में नहीं, बल्कि भारत का मजबूत पक्ष रखने वाले तार्किक नेता के रूप में है।
- ओवैसी पेशे से वकील हैं, और लंदन से कानून की पढ़ाई कर चुके हैं।
- उनकी तर्कशक्ति और संवाद शैली उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रभावशाली बनाती है।
- साथ ही, मुस्लिम देशों के साथ संवाद में उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक समझ भारत के लिए राजनयिक पूंजी बन सकती है।
1994 की यादें ताज़ा, जब राजनीति से ऊपर था राष्ट्र
ये कोई पहली बार नहीं है जब भारत ने राजनीति से ऊपर उठकर एकजुटता दिखाई हो। 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने भी एक ऐसा ही ऐतिहासिक कदम उठाया था — उन्होंने भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी को जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार मंच पर भारत का पक्ष रखने के लिए चुना था।
अब 2025 में, भारत फिर एक बार वैसी ही बहुदलीय एकता का प्रदर्शन कर रहा है। शशि थरूर और असदुद्दीन ओवैसी की भागीदारी, प्रधानमंत्री मोदी की उस रणनीति को दर्शाती है जिसमें राष्ट्रहित के आगे राजनीतिक खेमेबंदी नहीं आती।