जेलों में ‘जाति आधारित भेदभाव’ मामले को लेकर खफा सुप्रीम कोर्ट, ऐसे नियम खत्म हो

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जेलों में 'जाति आधारित भेदभाव' मामले को लेकर खफा सुप्रीम कोर्ट, ऐसे नियम खत्म हो
जेलों में 'जाति आधारित भेदभाव' मामले को लेकर खफा सुप्रीम कोर्ट, ऐसे नियम खत्म हो

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ‘जाति आधारित भेदभाव’ से जुड़ी याचिका पर बड़ा फैसला सुनाया है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि देश के कुछ राज्यों की जेलों में जाति आधारित भेदभाव को बढ़ावा देते हैं और जेलों में बनाए गए इस नियम को खत्म किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश बल्कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु समेत 17 राज्यों से जेल के अंदर जातिगत भेदभाव और जेलों में कैदियों को जाति के आधार पर काम दिए जाने पर जवाब मांगा था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जेल अधिकारियों को उनके साथ मानवीय व्यवहार करना चाहिए। कैदियों के बीच जाति को अलगाव के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे दुश्मनी पैदा होगी। पूरे इतिहास में जातिगत भेदभाव के कारण मानवीय सम्मान और आत्मसम्मान को नकारा गया है।

बता दें कि पिछली सुनवाई में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने उत्तर प्रदेश सरकार के वकीलों की कड़ी फटकार लगाई थी। उत्तर प्रदेश सरकार के वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया था कि यूपी की जेलों में कैदियों के साथ कोई जातिगत भेदभाव नहीं होता है। डीवाई चंद्रचूड़ ने उत्तर प्रदेश की जेल नियमावली के कुछ प्रावधान पढ़कर खफा हो गए थे। इस पर उन्होंने कहा था कि, नियम 158 में मैला ढोने के कर्तव्य का जिक्र है। यह मैला ढोने का कर्तव्य क्या है? इसमें मैला ढोने वालों की जाति का उल्लेख है। इसका क्या मतलब है।

याचिकाकर्ता ने 11 राज्यों के जेल प्रावधानों को चुनौती दी है क्योंकि मैनुअल श्रम के विभाजन, बैरकों के विभाजन और कैदियों की पहचान के संबंध में जाति आधारित भेदभाव करता है। यह अदालत जेलों के अंदर भेदभाव का स्वत: संज्ञान लेती है और रजिस्ट्री को निर्देश दिया जाता है कि वह तीन महीने बाद जेलों के अंदर भेदभाव के बारे में सूचीबद्ध करें और राज्य अदालत के समक्ष इस फैसले के अनुपालन की रिपोर्ट प्रस्तुत करें।