आज की राजनीति को क्या बताएं…एकदम से बसीम बरेलवी की गजल को फॉलो करती दिखती है
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
आप कहेंगे क्या बात कर रहे हैं……ये तो नैतिकता को ताक पर रखने की बात है…अब देखिए ना…ममता बनर्जी… भविष्य के पीएम पद की संभावनाओं को देखते हुए दिल्ली पहुंची … ममता के दिल्ली से लौटने के बाद राहुल एक्टिव हुए कि भाई हम तो पीएम की रेस में पहले से ही हैं…दोनों ने विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश की…..सब पहुंचे भी….लेकिन साधो हमारी नजर में एक बात खटक गई…बताउं….तमाम मान-मनुहार के बाद भी बसपा औऱ आम आदमी पार्टी इस गुटबंदी से बाहर रही….सत्ता पक्ष के खिलाफ एक जुट होने की बातें किताबी हीं रह गई ….काका कह गए हैं
सत्य और सिद्धांत में, क्या रक्खा है तात ? उधर लुढ़क जाओ जिधर, देखो भरी परात
देखो भरी परात, अर्थ में रक्खो निष्ठा, कर्तव्यों से ऊँचे हैं, पद और प्रतिष्ठा
साल 2018 में कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार के शपथ समारोह में शामिल होने के बाद से बसपा प्रमुख मायावती विपक्षी एकजुटता के किसी भी मंच पर नजर नहीं आईं. फिर चाहे कांग्रेस की तरफ से विपक्षी एकता की कवायद हुई हो आ फिर फिर किसी अन्य क्षेत्रीय दल के द्वारा. सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर कांग्रेस ने विपक्षी दल के साथ बैठक की थी, जिसमें बसपा ने शामिल होने से इनकार कर दिया था. ऐसे में साधो… मेरा यह कहना है कि मायावती विपक्षी एकता दलों के साथ खड़ी होकर प्रधानमंत्री पद की खुद की दावेदारी को पीछे धकेलना नहीं चाहती. वे देश की पहली दलित प्रधानमंत्री और दूसरी महिला प्रधानमंत्री के सपने को भरपूर हवा देना चाहती हैं, लेकिन उससे पहले वो यूपी में अपने खोए हुए सियासी जनाधार को वापस पाने की कवायद में है. इसीलिए यूपी से लेकर पंजाब तक उन्होंने सियासी बिसात बिछा रखी है. मायावती ने एकला चलो की नीति अपना रखी है…दिल्ली की सत्ता का रास्ता वाया यूपी होकर ही जाता है. अगले साल फरवरी में यूपी, पंजाब, उत्तराखंड सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे मे मायावती इनों दिनों यूपी के चुनाव की तैयारियों में जुटी हैं और लखनऊ में डेरा जमा रखा है. मायावती ने साफ कर दिया है कि यूपी में किसी भी दल के साथ वो गठबंधन कर चुनावी मैदान में नहीं उतरेंगी बल्कि अपने दम पर चुनाव लड़ेंगी. बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन के जरिए चुनावी बिगुल फूंक दिया है तो पंजाब में कांग्रेस के खिलाफ अकाली दल के साथ हाथ मिला रखा है. …मायावती पेगासस और किसान दोनों ही मुद्दों पर बीजेपी को तो घेर रही हैं, लेकिन विपक्षी दलों के साथ खड़ी होकर नहीं दूर कहीं एक किनारे से …..किसी तरह का कोई सियासी संदेश देने से बच रही हैं. ऐसे में न तो खुद मायावती किसी विपक्षी दल की बैठक में शामिल हो रहीं है और नहीं उनके मजबूत सिपहसलार माने जाने वाले पार्टी महासचिव सतीष चंद्र मिश्रा…मायावती चतुर राजनीतिज्ञ मानी जाती हैं. ऐसे में वो किसी भी विपक्षी दल की लीडरशिप स्वीकार नहीं करना चाहतीं. मायावती की राजनीति को काका हाथरसी के शबदों में समझे तों…
जो दल हुआ पुराना, उसको बदलो साथी
दल की दलदल में, फँसकर मर जाता हाथी
और केजरी वाल जी का तो कहना ही क्या….आंदोलन के जरिए सत्ता की मलाई पाई, अब केंद्र पर नजरें हैं जमाईं….आम आदमी पार्टी पंजाब से गुजरात….गोवा से उत्तरप्रदेश तक के चुनावों में ताल ठोक रही है….कयास तो यह भी लग रहे हैं कि ये दोनों पार्टियां बीजेपी की बी टीम हैं जों विपक्षी एकता गुट से छिटकी रहती हैं…तो हुई ना बात सही…ऐसी पार्टियां की राजनीति ही समझदारी की है कि वे इधर की लगती रहें और उधर की हो जाएं…..
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