MAHA KUMBH 2025: प्रयागराज की रक्षा और नागा संन्यासियों की शौर्यगाथा, यहां पढ़ें सनातन के लिए नागा संन्यासियों के बलिदान का इतिहास

0
12
महाकुंभ में नागा साधु पेशवाई में भाग लेते हुए
महाकुंभ में नागा साधुओं की पेशवाई: शौर्य और धर्म की रक्षा का प्रतीक

By : Rajeev Sharma

Edited By: Umesh Chandra

MAHA KUMBH 2025: कुंभ, महाकुंभ और अर्धकुंभ का प्रवेश नागा साधुओं की पेशवाई जिसे (अब छावनी प्रवेश कहते हैं) से होता है। दरअसल, नागा साधुओं ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से बड़ी-बड़ी जंग लड़ी और जीती हैं। इन साधुओं के हथियार भी मुगलों की प्रशिक्षत सेना जैसे नहीं होते थे। साधारण बरछी-भाले-तलवार चिमटा-फरसा ही थे। आक्रांताओं को हरा कर जब नागा साधु अपने अखाड़ों में पहुंचे तो उनका स्वागत विजयी सैनानियों की तरह किया गया। तभी से हर कुंभ मेले में नागा साधुओं की पेशवाई की परंपरा शुरू हो गई।

नागा संन्यासियों की पेशवाई: एक गौरवशाली परंपरा का इतिहास

महाकुंभ में अखाड़ों के नगर प्रवेश की परंपरा नागा संन्यासियों के अद्भुत शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है। सदियों पुरानी इस परंपरा के पीछे १७वीं शताब्दी का एक ऐतिहासिक युद्ध है। जिसमें नागा संन्यासियों ने अफगानी आक्रांताओं से प्रयागराज की रक्षा की थी। इस विजय के उपलक्ष्य में अखाड़ों के नगर प्रवेश की शुरुआत हुई, जो आज भी महाकुंभ का एक महत्वपूर्ण आयोजन है।

प्रयागराज की रक्षा की वीरगाथा

नागा संन्यासियों का संगठन और प्रयाग की रक्षा दशनामी नागा संन्यासियों की यह गौरवशाली गाथा श्रीमहंत लालपुरी द्वारा लिखित पुस्तक “दशनाम नागा संन्यासी” में विस्तार से दिया गया है। इस युद्ध नागा संन्यासियों का नेतृत्व राजेंद्र गिरि नामक वीर योद्धा ने किया था। उन्होंने झांसी से ३२ मील दूर मोठ नामक स्थान पर नागाओं को संगठित किया और ११४ गांवों पर अधिकार स्थापित करके एक दुर्ग का निर्माण कराया।

अफगानी आक्रमण और अत्याचार १७वीं शताब्दी के दौरान अफगानी और बंगश रोहिलों के अत्याचारों से प्रयाग की जनता त्रस्त थी। दिनदहाड़े लूटपाट, महिलाओं के सम्मान पर आघात और निरंतर हमले आम बात बन गए थे। लोग अपने गांव और शहर छोड़ने को मजबूर हो गए थे। उस समय मुगल शासक अहमद शाह ने अवध के नवाब सफदरजंग को सत्ता दी, जिससे अफगान विद्रोही हो गए। अफगानों ने फर्रुखाबाद के निकट राम चौतनी नामक स्थान पर सफदरजंग को हराकर प्रयाग को घेर लिया। दुर्ग के रक्षक कम संख्या में थे और अफगानों के हमलों का मुकाबला करने में असमर्थ थे। यहां भी स्थानीय शासक की फौज के साथ नागा संन्यासियों ने मोर्चा संभाला अफगानियों को मार भगाया। नागा संन्यासियों की विजय की गाथा फतेहगढ़ (फर्रूखाबाद) में लिखी गई।

जब खबर फैली कि प्रयाग पर संकट आ गया है। अफगानी आक्रांता ने प्रयाग पर चढाई कर दी है तो यह खबर सुनकर राजेंद्र गिरि ने नागा संन्यासियों की विशाल वाहिनी तैयार की और प्रयाग पर हुए अफगानी आक्रमण का सामना किया। उन्होंने अफगानों की घेराबंदी तोड़ी और जनता को उनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। उनके शिष्य उमराव गिरि और अनूप गिरि ने भी इस युद्ध में अद्वितीय पराक्रम दिखाया। ग़ज़नवी और बाबर के समय भी नागा संन्यासियों ने अपना बलिदान देकर सनातन धर्म को बचाए रखा और आक्रांताओं को दिल में खौफ बना कर रखा।

साल 1001 से 1027 महमद ग़ज़नवी ने भारत पर कई हमले किए थे और प्रमुख हिंदू मंदिरों को नष्ट किया। सबसे प्रसिद्ध उदाहरण सोमनाथ मंदिर का है, जिसे ग़ज़नवी ने 1025 में तोड़ा था। इन मंदिरों की रक्षा के लिए भारतीय राजाओं की सेनाओं के हरावल दस्तों के रूप में सबसे आगे नागा संन्यासियों की टोली मोर्चा संभालती थी।

ग़ज़नवी ने हिंदू मंदिरों को लूटने और नष्ट करने के लिए कई हमले किए थे, और इन हमलों का प्रतिकार नागा साधुओं द्वारा किया गया था। हालांकि, इस समय उनके संघर्षों के बारे में ज्यादा विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। ऐसा समझा जाता है कि नागा संन्यासियों का बलिदान की गाथाएं महज इसलिए दब कर रह गईं क्योंकि वो सामान्य जन-जीवन का हिस्सा नहीं रहे।
सन् १५२६ से १५३० के मध्य बाबर के समय में भी हिंदू मंदिरों को नुकसान पहुँचाया गया था, खासकर अयोध्या में राम मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर। बाबर के सेना प्रमुख, मीर बख़्तियार, ने अयोध्या के राम मंदिर को तोड़ा था। बाबर और उसके बाद के शासकों के खिलाफ नागा साधुओं ने स्थानीय स्तर पर संघर्ष किए।

औरंगज़ेब के अत्याचार और नागा साधुओं का प्रतिरोध

सन १६६७ से १६९० के बीच औरंगज़ेब के अत्याचारी शासनकाल में नागा साधुओं के संघर्ष महत्वपूर्ण थे। औरंगज़ेब ने हिंदू मंदिरों को नष्ट करने की नीति अपनाई थी, और इस दौरान नागा साधुओं ने कई जगहों पर मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया।

उत्तर भारत के कई विशालकाय और अद्भुत स्थापत्य कला के नमूने मंदिरों को भ्रष्ट करने के बाद सन् १६६९ में औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को नष्ट किया और वहाँ मस्जिद बनाई। इस घटना के बाद नागा साधु इस मंदिर की पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष में जुटे। इस संघर्ष में नागा साधुओं ने औरंगज़ेब के शासन के खिलाफ जमकर विरोध किया।

मथुरा और वृंदावन में सन् १६७० मे औरंगज़ेब ने मथुरा के प्रसिद्ध कृष्ण जन्मभूमि मंदिर को तोड़ा और वहाँ मस्जिद बनाई। नागा साधुओं ने इस मंदिर की रक्षा के लिए भी सशस्त्र क्रांति की। हालांकि इस समय के संघर्ष की विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।

नागा साधुओं ने औरंगज़ेब के खिलाफ संग्रामगढ़ में १६७० से १६८० के बीच एक बड़ा युद्ध लड़ा। जिसे हिंदू धर्म की रक्षा के प्रयास के रूप में देखा जाता है। इसमें नागा साधुओं के साथ सिख और मराठों का भी सहयोग था।

नागा साधु न केवल धार्मिक तपस्वी होते थे, बल्कि वे युद्ध के माहिर भी होते थे। उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से सीधी लड़ाइयाँ लड़ी। इन युद्धों में उनकी सैन्य संगठन क्षमता और वीरता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नागा साधुओं के संघर्ष में प्रमुख नेतृत्वकर्ता योद्धा राजेंद्र गिरि थे। जिन्होंने १७वीं शताबदी में प्रयागराज की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अद्भुत योद्धा साधु राजेंद्र गिरि ने नागा साधुओं की विशाल सेना का नेतृत्व किया और मुगलों के खिलाफ कई युद्ध लड़े। उनका नाम विशेष रूप से प्रयागराज के अफगानी आक्रमण के दौरान प्रसिद्ध हुआ।

बिना किसी भौतिक स्वार्थ के सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा करने में नागा साधुओं का योगदान बेहद महत्वपूर्ण था। हालांकि औरंगज़ेब के शासन के दौरान हिंदू मंदिरों को भारी नुकसान हुआ, लेकिन नागा साधुओं ने लगातार अपने संघर्षों और संघर्षों के माध्यम से हिंदू धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से कई बार सामना किया।

राजेंद्र गिरि और अन्य नागा साधुओं की वीरता के कारण, कई मंदिरों को पुनः बनाए जाने और उनकी रक्षा की दिशा में सफलता प्राप्त हुई। इन संघर्षों का प्रभाव हिंदू धर्म में नए उत्साह और ताकत का प्रतीक बना।

नगर प्रवेश की परंपरा: एक ऐतिहासिक आयोजन

सनातन धर्म पर आने वाले संकट को आद्य शंकराचार्य ने संभवतः पहले ही भांप लिया था, इसलिए न केवल चारो दिशाओं में चार मठों की स्थापना की बल्कि दशनामी अखाड़ों की स्थापना भी की। इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक “दशनाम नागा संन्यासियों का इतिहास” में इस युद्ध का वर्णन किया है। उन्होंने नागा योद्धाओं के वीरतापूर्ण कार्यों और उनकी अनुशासित सेना के बारे में विस्तार से लिखा है। नगर प्रवेश की परंपरा नागा संन्यासियों की इस विजय के बाद, उनके सम्मान में प्रयाग के नागरिकों ने ढोल-नगाड़ों और बाजे-गाजे के साथ उनका स्वागत किया। यह आयोजन नगर प्रवेश के रूप में मनाया गया। उस दिन से यह परंपरा महाकुंभ का अभिन्न हिस्सा बन गई।

“नगर प्रवेश की परंपरा नागा संन्यासियों के शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है। अफगान आक्रमणकारियों से प्रयाग की रक्षा के बाद, नागा संन्यासियों ने नगर प्रवेश किया और तभी से यह परंपरा जारी है।

दशनामी परंपरा और नागा साधुओं का संगठन

नागा संन्यासी भारतीय संस्कृति और धर्म की एक अनोखी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी परंपरा के तहत संगठित किया था। वे न केवल धार्मिक तपस्वी होते हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर योद्धा के रूप में भी कार्य करते हैं। नागा संन्यासियों का मुख्य उद्देश्य धर्म की रक्षा करना है।

उनकी सैन्य कुशलता और संगठन क्षमता ने कई ऐतिहासिक युद्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रयाग की रक्षा इन योद्धाओं की ऐसी ही एक वीरगाथा है, जिसे नगर प्रवेश की परंपरा द्वारा महाकुंभ में हर बार याद किया जाता है।

यह भी पढ़ें:

महाकुंभ 2025: हजारों वर्षों की परंपरा और इतिहास का भव्य पर्व, जानें कुंभ मेले का गौरवशाली इतिहास