न्याय में भाषा की भूमिका, अनुवाद की चुनौतियाँ और समाधान

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Written By : Ritam Upadhyay
By : Ritam Upadhyay

भाषा संचार का एक मूलभूत तत्व माना जाता है, जो न्याय व्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिर भी, यह एक बड़ी रूकावट भी बन सकती है, विशेष रूप से उस समाज में जहाँ कई भाषाएं और बोलियाँ एक साथ मौजूद रहती हैं। यह लेख उन कठिन तरीकों को उजागर करता है जिसके वजह से भाषा न्याय में रूकावट बनती है, इसको लिखने का उद्देश्य रूकावट के वास्तविक रूप को उजागर करना है और इनसे निपटने के लिए संभावित समाधान प्रस्तुत करना है।

न्याय व्यवस्था में भाषा की भूमिका

न्याय व्यवस्था मुख्य रूप से भाषा पर निर्भर करता है, चाहे वह शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया हो साक्ष्य प्रस्तुत करना हो, जिरह (बहस) करना हो, निर्णय सुनाना हो, या यह पुष्टि करनी हो कि प्रतिवादी अपने अधिकारों को समझ सका

कानूनी भाषा अक्सर कठिन होती है और आमतौर पर किसी देश या क्षेत्र का कानून उसके आधिकारिक भाषा में तैयार की जाती है, जिसे सभी नागरिक समझ नहीं पाते।

बहुभाषी समाजों में, न्याय व्यवस्था की भाषा और नागरिकों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के बीच वह अंतर गंभीर रुकावटें उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई प्रतिवादी या वादी अदालत के कार्यवाही को नहीं समझ पाया, तो यह अपने ही मामले में सक्रिय रूप से भाग लेने से वंचित हो जाता है। जिससे निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।

न्याय में भाषा संबंधी रुकावटों के वास्तविक उदाहरण निम्नलिखित है:

  1. अनुवाद सेवाओं की सीमाएँ

न्यायालयों में योग्य दुभाषियी (इंटरप्रेटर) की कमी सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। कई न्यायालयों मैं, जो लोग आधिकारिक भाषा नहीं चोलते, वे अनुवाद सेवाओं पर निर्भर करते हैं। हालांकि, ये सुविधाएं अक्सर अपर्याप्त फंडिंग और स्टाफ की कमी से जूझती है। उदाहरण के लिए, भारत व अन्य देश में, कई अदालतों को दुर्लभ भाषाएँ बोलने वाले प्रमाणित दुभाषिए प्रदान करने में कठिनाई होती है। जिस प्रकार पटना उच्च न्यायलय में वकील और जज के बीच हुई अंग्रेजी-हिंदी भाषा की नोक-झोंक काफी चर्चा का विषय था।

  1. जटिल कानूनी शब्दावली

जब अनुवाद सुविधाएं उपलब्ध भी होती हैं, तब भी कानूनी शब्दों की जटिल प्रकृति के कारण सटीक अनुवाद करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक कानूनी शब्दों के विशिष्ट अर्थ होते हैं, जिसका सीधा अर्थ (डायरेक्ट इकिवैलेन्ट) अन्य भाषाओं में उपलब्ध नहीं होते, जिससे गलतफहमी और भ्रम की स्थिति भी पैदा होने की संभावना होती है।

  1. पक्षपात और भेदभाव

भाषा की रुकावट पक्षपात (बायस) और भेदभाव को बढ़ावा दे सकती है। जो लोग आधिकारिक भाषा में दक्ष नहीं होते, उन्हें अक्सर कम विश्वसनीय वा संदेहपूर्ण गवाह के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, उनकी सीमित भाषा के कारण, उनके पक्ष में नकारात्मक निर्णय आने की संभावना रहती है या उनको कठोर सजा भी दी जा सकती है।

  1. स्वदेशी और अल्पसंख्यक भाषाजों को भेदभाव का सामना करना

कई देशी में, विशेष रूप से जिनका औपनिवेशिक इतिहास रहा है जैसे की भारत, फ्रांस व अन्य देशों में स्वदेशी व अल्पसंख्यक भाषाओं की उपेक्षा की जाती है और उपनिवेशकों की आषा को प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण के लिए, भारत में अंग्रेजी (मुख्यतः) और हिंदी न्याय व्यवस्था पर हावी है, जिससे क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाएँ बोलने वाले लोगों को न्याय पाना कठिन हो जाता है।

भाषा सम्बंधित बाधाओं का मानव पर प्रभाव

न्याय में, भाषा की रुकावटे लोगों के जीवन पर गंभीर रूप से प्रभावित करती है। यदि कल्पना की जाय तो ग्रामीण क्षेत्र से आया एक घरेलू कामगार व्यक्ति पर, किसी महानगर में चोरी का झूठा आरोप लगाया गया हो। यदि वह अदालत के कार्यवाही या लगाए गए आरोप को नहीं समझ पाता है, तो वह पूरी तरह असहाय और असुरक्षित हो जायेगा। इसी प्रकार, एक शरणार्थी, जो अपने देश में परेशानियों से बचकर आया है.

यदि अपनी स्थिति को प्रभावी ढंग से नहीं समझ पाते हैं, तो उसे अनजाने में उसी खतरे में वापस भेजा जा सकता है। ये परिस्थितियाँ स्पष्ट करती है कि भाषा की रुकावटें लोगों को मानसिक और भावनात्मक रूप से बहुत प्रभावित कर सकती है। वे स्वयं को अलग-असहाय और हतोत्साहित महसूस करते हैं, जिससे न्यायिक व्यवस्था में उनका विश्वास कमजोर होता है और सामाजिक असमानता फैलती है।

भाषा संबंधी बाधाओं को दूर करने के लिए कानूनी ढाँचे :

  1. अंतर्राष्ट्रीय मानक

कई अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे यह मान्यता देते हैं कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए भाषा के अधिकार महत्वपूर्ण हैं। अंतर्राष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर समझौते (ICCPR) का अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि जो लोग अदालती भाषा नहीं समझते, उन्हें इसके तहत अनुवादक लेने का अधिकार मिलेगा।

  1. राष्ट्रीय नीतियाँ

विभिन्न देशों ने भाषा सम्बंधित बाधाओं से निपटने के लिए अलग-अलग उपाय किए हैं। उदाहरण के लिए, कनाडा का आधिकारिक भाषा अधिनियम (Official Languages Act) नागरिकों को अंग्रेजी या फ्रेंच में न्यायिक सुविधाएं देने की गारंटी देता है। इसी तरह, भारत का संविधान (1950) 22 आधिकारिक भाषाओं को मान्यता देता है और निचली अदालतों में क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग के लिए विधि सम्मत प्रावधान सुनिश्चित करता है।

न्यायिक व्यवस्था में भाषाई रुकावटों को दूर करना

  1. दुभाषिया प्रशिक्षण में निवेश

सरकारों को अदालतों में प्रमाणित और प्रशिक्षित दुभाषियों की नियुक्ति के लिए फंडिंग प्रदान करनी चाहिए, ताकि वे कानूनी शब्दावली और सांस्कृतिक संदर्भों को सही तरीके से समझ व सामंजस्य पूर्ण इस्तेमाल में कर सके।

विधिक भाषा को सरल बनाना

संसद द्वारा कानूनी भाषा को आसान बनाकर, कानूनों और न्यायिक प्रक्रियाओं को अधिक सुलभ बना सकते हैं। जैसे की, यूनाइटेड किंगडम (यु० के०) में “नि लैंग्वेज” (सरल भाषा) मुहीम चलाई जा रही है, जिसके फल स्वरुप कानूनी दस्तावेज सभी के लिए सरल व स्पष्ट हो सके।

  1. तकनीकी समाधान

आधुनिक तकनीक, भाषा की रुकावटों को दूर करने में प्रमुख भूमिका निभा सकता है। जैसे की रीयल-टाइम ट्रांसलेशन सॉफ्टवेयर और बहुभाषी कानूनी डेटाबेस न्यायिक पहुँच को आसान बना सकता है। उदाहरण के लिए, विभिन्न भाषाओं में कानूनी जानकारी देने वाले मोबाइल ऐप नागरिकों को उनके अधिकारों को समझने में मदद कर सकते हैं।

  1. भाषाई विविधता को बढ़ावा देना

न्यायिक व्यवस्था में स्वदेशी और अल्पसंख्यक भाषाओं को शामिल करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए इन भाषाओं को बोलने (विशिष्ट

भाषा जानकार) वाले कानूनी पेशेवरों की भर्ती की जानी चाहिए व विभिन्न भाषाओं में कानूनी दस्तावेज व अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

  1. सामुदायिक सहायता और कानूनी सहायता सेवाएँ

स्थानीय कानूनी सहायता कार्यक्रम, भाषाई रुकावटों को दूर करने में मदद कर सकते हैं, जिससे नागरिकों को उनके ही मातृभाषा में, उनके अधिकारों की जानकारी दी जा सके और उन्हें न्यायिक व्यवस्था में सहायता मिल सके।

भाषा को न्याय के मार्ग में, बाधा न बनकर इसे मजबूत करने वाला साधन बनना चाहिए। न्याय व्यवस्था में भाषा सम्बंधित रुकावटों को दूर करने के लिए नीतिगत सुधार, समुचित वितपोषण और सांस्कृतिक जागरुकता आवश्यक है। भाषायी समावेशन को बढ़ावा देकर हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हर व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी भाषा का प्रयोग करता हो, उसे समान और निष्पक्ष न्याय मिलो

आगे बढ़ते हुए, सरकारी न्यायिक संस्थानों और समुदायों को मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जहाँ सभी को न्यायलय में एक समान न्याय मिल सके। केवल तभी हम न्याय और मानवाधिकारों के सिद्धांतों को सच्चे अर्थों में कायम रख पाएंगे।

Written By- Ritam Upadhyay, a sixth semester student of 3-year LLB, Hemvati Nandan Bahuguna Garhwal University