झारखंड को अलग राज्य बनवाने में शिबू सोरेन का योगदान: आदिवासी चेतना के अग्रदूत की संघर्षगाथा

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भारत के राजनीतिक इतिहास में कुछ नेता ऐसे होते हैं जो न केवल एक आंदोलन का नेतृत्व करते हैं, बल्कि एक पूरे राज्य की आत्मा बन जाते हैं। शिबू सोरेन ऐसे ही एक जननेता थे, जिनकी जीवन यात्रा और संघर्ष झारखंड के निर्माण से अभिन्न रूप से जुड़ी रही। वे न केवल झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक थे, बल्कि झारखंड को एक पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने की लड़ाई में अग्रणी सेनापति भी थे।

बिहार का दक्षिणी क्षेत्र, जहां झारखंड स्थित है, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद वर्षों से उपेक्षित रहा था। यहां के संथाल, मुंडा, उरांव और हो जैसे आदिवासी समुदायों को आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा रखा गया था। यही वह भूमि थी जहां शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज के अधिकारों की आवाज़ बनकर उभार लिया था।

झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना
1972 में शिबू सोरेन ने वामपंथी विचारधारा के नेता ए.के. रॉय और समाजसेवी बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। इस संगठन ने क्षेत्रीय पहचान, संस्कृति, और अधिकारों को लेकर जनआंदोलन की शुरुआत की। आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था — ‘झारखंड को बिहार से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाना’।

ज़मीनी संघर्ष और जन चेतना का निर्माण
शिबू सोरेन ने केवल राजनीतिक मंचों पर ही नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर जाकर आदिवासी जनता को जागरूक किया। उन्होंने भूमि, वन और जल पर आदिवासियों के अधिकारों के लिए आंदोलन चलाए। ‘दिशोम गुरुजी’ के नाम से लोकप्रिय शिबू सोरेन ने कई बार गिरफ्तारी झेली, हिंसा और विरोध का सामना किया, लेकिन पीछे नहीं हटे। उनका आंदोलन मुख्य रूप से ‘जल-जंगल-जमीन’ के इर्द-गिर्द था — ये वह मुद्दे थे जो झारखंडी अस्मिता की रीढ़ थे।

संसद और सियासत में आवाज़
शिबू सोरेन 1980 में पहली बार दुमका से लोकसभा पहुंचे और झारखंड मुद्दे को संसद में मजबूती से उठाया। उन्होंने लगातार आठ बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सांसद के रूप में झारखंड की आकांक्षाओं को राष्ट्रीय फलक पर जगह दी। उन्होंने केंद्र सरकारों पर झारखंड राज्य गठन का दबाव बनाया और झारखंड क्षेत्र के संसाधनों का दोहन तथा स्थानीय निवासियों की उपेक्षा जैसे मुद्दों को उभारकर राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया।

झारखंड का निर्माण: संघर्ष की परिणति
लंबे संघर्ष, जनांदोलन और राजनीतिक दबाव के चलते आखिरकार 15 नवंबर 2000 को झारखंड भारत का 28वां राज्य बना। यह दिन बिरसा मुंडा की जयंती के दिन चुना गया, जो आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक है। शिबू सोरेन का यह सपना साकार हुआ, जिसमें उन्होंने अपना जीवन खपा दिया था।

हालाँकि वे उस समय राज्य के पहले मुख्यमंत्री नहीं बन सके, लेकिन बाद में तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने — भले ही वे कार्यकाल लंबे न रहे हों, उनका प्रतीकात्मक महत्व अत्यधिक था।

शिबू सोरेन ने झारखंड के लोगों को केवल एक भौगोलिक पहचान ही नहीं दी, बल्कि उन्हें राजनीतिक चेतना, अधिकार और आत्मसम्मान भी दिलाया। उनकी विरासत को आज उनके बेटे हेमंत सोरेन आगे बढ़ा रहे हैं, जो वर्तमान में झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। शिबू सोरेन का झारखंड राज्य के गठन में योगदान केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि संस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक आंदोलन की मिसाल है। वे उन नेताओं में से हैं जिन्होंने आदिवासी समाज की आवाज़ को सत्ता के गलियारों तक पहुँचाया और एक भू-राजनीतिक इकाई को सामाजिक न्याय के आधार पर जन्म दिलाया। झारखंड आज जिस पहचान के साथ भारत के मानचित्र पर मौजूद है, उसके पीछे शिबू सोरेन का संघर्ष, समर्पण और साहसिक नेतृत्व अमिट छाप की तरह दर्ज है।