अरुण रंजन: स्मृति, पत्रकारिता और एक युग की धरोहर

0
7
arun ranjan
arun ranjan

प्रो. चंद्रकांत प्रसाद सिंह| अरुण रंजन केवल हिंदी पत्रकारिता की एक ऊँची शख्सियत नहीं थे, वे एक संपूर्ण व्यक्तित्व थे — जिनमें रिपोर्टर की जिज्ञासा, समाजविज्ञानी की पैनी दृष्टि और शिक्षक की आत्मा एक साथ प्रकट होती थी। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक उन्होंने बिहार की राजनीति, जातीय समीकरणों और मीडिया जगत के गहरे उतार–चढ़ावों को नज़दीक से देखा। बेलछी नरसंहार, भागलपुर जेल अंधीकरण कांड, ललित नारायण मिश्र की हत्या जैसे मुकदमों की धीमी रफ्तार, तथा ज़मीन संघर्षों और निजी सेनाओं — रणवीर सेना और सनलाइट सेना — की हिंसक टकराहटों के बीच उनकी पत्रकारिता गढ़ी और तपाई गई।

उनकी रिपोर्टें केवल समाचार नहीं थीं; वे घटनाओं की सामाजिक व्याख्या थीं। इन्हीं के चलते टाइम्स ऑफ इंडिया, प्रोब और ब्लिट्ज जैसे राष्ट्रीय मंचों तक उनकी आवाज़ पहुँची। उनकी कम से कम एक रिपोर्ट Violence Erupt शीर्षक से प्रकाशित संकलन में भी शामिल की गई। यह उनकी लेखनी की व्यापकता और महत्व का प्रमाण था। अरुण सिन्हा, हेमेंद्र नारायण और कैमरे के अद्भुत साधक कृष्ण मुरारी किशन के साथ उनकी टीम ने फील्ड रिपोर्टिंग की जो मिसाल कायम की, वह आज भी पत्रकारिता के लिए मानक बनी हुई है।

दूरदर्शी और तथ्यनिष्ठ पत्रकार
अरुण रंजन उन चुनिंदा पत्रकारों में थे जो परंपरागत धारणाओं को दुहराने के बजाय नए रुझानों को पहचानने और समझने में विश्वास रखते थे। पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना जब अभिजात दृष्टि से ओझल थी तब उनकी रिपोर्टिंग पहले ही इसके उदय का संकेत दे चुकी थी। कर्पूरी ठाकुर का उत्थान, और आगे चलकर लालू प्रसाद व नीतीश कुमार की राजनीति, इस दूरदर्शिता के प्रमाण हैं। वे समाजवादी परिवेश में पले – बढ़े थे पर उन्होंने कभी विचारधारा को सत्य और तथ्य पर हावी नहीं होने दिया। उनका फोकस साक्ष्य पर होता था न कि किसी विचारधारा, गुट या जाति पर।

शब्दों और विचारों की अनूठी शैली
उन्होंने पत्रकारिता को केवल सूचनाओं का साधन नहीं माना, बल्कि नए शब्द और अवधारणाएँ गढ़ीं — ‘जनाधार की राजनीति’ और ‘ जनादेश की राजनीति’ जैसी अवधारणाएँ आज हिंदी पट्टी की राजनीतिक विश्लेषण की शब्दावली का हिस्सा हैं। उनकी भाषा संस्कृत की गहराई, अपभ्रंश और फ़ारसी की लय, अंग्रेज़ी की सहजता, भोजपुरी–मगही–अंगिका की ज़मीनी मिठास और आधुनिक भारतीय भाषाओं के रंगों से बनी थी। वे भाषा को अपने अनुरूप ढाल लेते थे। उनकी भाषा ‘ वाणी के डिक्टेटर’ कबीर की याद दिला जाती है।

1990 के दशक में नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण में उन्होंने ‘ मन नहीं लगता है’ शीर्षक से फ्रंट पृष्ठ पर एक संपादकीय लिखा जिसमें फोकस था अभिजन समाज में जातीय चेतना के घुटन भरे फैलाव को उजागर करना। यहाँ भी उनका आग्रह तथ्य और आंकड़ों से उद्भुत सत्य पर ही था भले ही तथ्य भावजगत की यात्रा के अनुभव से सिंचित हों।

प्रिंट से टीवी तक
2000–2001 में उन्होंने ज़ी न्यूज़ से जुड़कर प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर कदम बढ़ाया। यहाँ भी उन्होंने दिखाया कि किस तरह सामाजिक दृष्टि से सार्थक टीवी पैकेज दृश्यात्मक रूप से भी प्रभावी बन सकते हैं।

गुरु और मार्गदर्शक
सत्तर के दशक से लेकर 2010 तक वे पत्रकारों की पीढ़ियों के मार्गदर्शक रहे। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी गद्य को दिशा देने वाले थे, वैसे ही अरुण रंजन ने हिंदी रिपोर्टिंग को वस्तुनिष्ठ भाषा के नए आयाम दिए। वे शिवपूजन सहाय और एज्रा पाउंड की तरह उन व्यक्तित्वों में गिने जा सकते हैं जिन्होंने दूसरों को गढ़ा और स्वयं पृष्ठभूमि में रहे। उनकी शिक्षण शैली भी अनुपम थी। जब उन्होंने जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड मास कम्युनिकेशन (JIMMC) से जुड़कर अध्यापन शुरू किया तो फील्ड अनुभव से उपजा उनका पाँच पन्नों का नोट भी एक संपूर्ण पाठ्यक्रम जैसा था। वे हँसते हुए कहते — “मैं रिपोर्टर था; तुमने मुझे शिक्षक बना दिया।”

मानवीयता और आत्मीयता
अरुण रंजन युवा पत्रकारों को स्वतंत्रता देते थे, उन पर भरोसा करते थे। 1992 में जब मैंने डॉ. बिंदेश्वर पाठक का लंबा साक्षात्कार किया, तो उन्होंने मुझे उनकी तीन किताबों की समीक्षा का दायित्व भी सौंपा और कहा — “जो चाहो करो।” यही था उनका संपादकीय संरक्षण, जो विश्वास पर आधारित था।
जीवन के अंतिम वर्षों में भी उनकी आत्मा ज्ञान-पिपासु बनी रही। पुत्र की असामयिक मृत्यु ने उन्हें अंतर्मुखी कर दिया, पर वे लगातार पढ़ते रहे — रूसी, फ्रेंच, जर्मन, मराठी, बांग्ला, मलयालम, उड़िया, डोगरी और अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित ग्रंथ। उनकी पत्नी श्रीमती शोभा सिन्हा (बेबी भाभी) उनका मौन आधार थीं। अंततः वे बेटी सज्जा सिन्हा और दामाद मनोज मनु के नोएडा घर में आकर रहने लगे, जहाँ नातियों का स्नेह उन्हें नई गर्माहट देता रहा।

अंतिम पड़ाव
बाहरी दुनिया उन्हें तर्कवादी मानती रही, परंतु भीतर वे एक आकाशधर्मी साधक थे जो असीमता की तलाश में जीते थे। 23 जून 2025 की रात, नोएडा में, अपनी अर्द्धांगिनी की बांहों में उन्होंने अंतिम सांस ली। मेरी उनसे आख़िरी बातचीत मई 2023 में हुई थी। उन्होंने विश्वविद्यालय से अवकाशप्राप्ति के बाद मुझे शिक्षण में अबाध बने रहने की सलाह दी, पर मैंने गाँव जाकर अपने परिवार का अधूरा काम पूरा करने का निश्चय किया। उन्होंने कहा — “मेरी बात नहीं मानते? तो मैं अब फ़ोन नहीं करूँगा।” और सचमुच उन्होंने नहीं किया। मैंने भी आदरजनित भय और संकोचवश उन्हें फ़िर फोन नहीं किया। आज समझता हूँ — वे वैसे भी मुझे गले लगा लेते। क्योंकि वे सदा उपलब्ध एक छतरी थे — तीक्ष्ण दृष्टि संपन्न स्नेहिल छतरी। अरुण जी — किसी के लिए भैया, किसी के लिए सर — हम सब आपके प्रति कृतज्ञ हैं। हिंदी पत्रकारिता आपसे और मानवीय, और गहरी, और समृद्ध हुई है।
आप जल्दी लौटिए — उस रूप में, जिसकी इस भूमि और इस पेशे को ज़रूरत है।