मराठी लेखक दया पवार की ‘बुलतं’ दलित साहित्य की पहली आत्मकथा मानी जाती है। जिसमें लेखक ने जातिगत भेदभाव की पीड़ा दुनिया के सामने रखी है। ये आत्मकथात्मक उपन्यास एक प्रयास है लेखक का स्वयं को मुक्त करने का। आप इस रचना को पढ़ेंगे तो लगेगा कि लेखक और इस दुनिया के बीच एक तरह की जंग जारी है।
साल 1978 में लिखी गयी इस आत्मकथा में महार जाति के लोगों के साथ होने वाले भेदभाव की कहानी कही गयी है। आत्मकथा को पढ़ने के बाद आप समझ पाएंगे कि कैसे जाति आपका पीछे कभी नहीं छोड़ती है। इस रचना में कहानी ग्रामीण महारवाड़ा और मुंबई के कावाखाना के आस-पास घूमती है। पिता के मरने से पहले लेखक का जीवन मुंबई में बीतता है जहां इतना जातीय भेदभाव नहीं है। हालांकि जब वह गांव लौटते हैं तो गांव में इस भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी होती हैं।
लेखक बताते हैं कि कैसे उनके परिवार के आगे इतनी बड़ी आर्थिक समस्या आ जाती है। लेखक दया पवार अपने इस माहौल से भागने और बचने की कोशिश करते हैं। इस उपन्यास में लेखक कहते हैं कि मैंने पूरी कोशिश की कि अपने अतीत को भुला सकूं लेकिन ऐसा कर नहीं सका। आप अपने भूतकाल को इतनी आसानी से नहीं भुला सकते। हालांकि ये सच है कि जो अपने अतीत को नहीं जानता, वह अपने भविष्य की दिशा भी तय नहीं कर सकता।
अपनी इस रचना का नाम लेखक ने बलुतं इसलिए रखा क्योंकि वे उस बात को खारिज करने से इंकार कर देते हैं जो कि उनको खारिज करने के लिए कहा गया। वे बताते हैं कि उनका नाम क्यों ऐसा है। वे जिस समाज से आते हैं वहां नाम से ज्यादा जिंदा रहना अहम है।
इस आत्मकथा के अंत में लेखक लिखतें हैं, ”दगड़ू पवार अब चल रहा है। उसके कंधे झुके हुए हैं। उसके कंधों पर ईसा मसीह सा भारी क्रूस उठा रखा है और लगता है इस बोझ से वह झुक गया है। ईसा मसीह के पीछे जैसी प्रकाश-पुंज की परिधि होती है, ऐसी परिधि इसके पीछे नहीं। धीरे-धीरे उसका धब्बा कम , कम और कम होता जा रहा है। अब वह विशाल भीड़ में समा चुका है।”
इस उपन्यास में लेखक दया पवार ने लेखन की ऊंचाइयों को छुआ है। ये रचना दलित साहित्य के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। इसलिए आपको भी इसे जरूर पढ़ना चाहिए।