भागलपुर को रेशमी शहर का दर्जा यूं ही नहीं मिला। इसके पीछे परंपरागत व हुनरमंद बुनकरों का अहम योगदान रहा है। देश की किसी भी राज्य में तसर, मालवरी व मूंगा के धागों का एक साथ कपड़ा तैयार नहीं किया जाता है लेकिन बिहार के भागलपुर में ऐसा होता है। कर्नाटक ने मालवरी, गुवाहाटी ने मूंगा से तैयार कपड़ों को अपनी विशेषता बनाई। लेकिन भागलपुर ने तीनों धागों को अपनाकर फर्निशिंग व ड्रेस मेटेरियल तैयार किया। व्यापारी भी एक स्थान पर अपनी मांग को पूरा करना चाहते थे। जिसके बाजार का मुख्य केंद्र भागलपुर बना। इसी विशेषता की वजह से यह रेशमी शहर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां की बनी साड़ियां पूरे विश्व में अपनी चमक , डिजायंस और कंफर्ट के लिए जानी जाती हैं।
जियोमेट्रिक पैटर्न वाली यह भागलपुरी आर्ट सिल्क साड़ी मल्टीकलर है। इस साड़ी का पल्लू भी खास पैटर्न में हैं जो इसे और भी ट्रेंडी बना रहा है।
यूं तो सिल्क के कपड़े को शुद्ध व पवित्र वस्त्र माना जाता है। महाभारत काल में दानवीर कर्ण के कालखंड में रेशम कपड़ों के उत्पादन पर बल दिया गया था। बाला बिहुला की लोकगाथा में चंद्रधर सौदागर को बड़ा व्यवसायी बताया गया है जो गंगा व समुद्र मार्ग से विदेशों में व्यापार किया करते थे। उन्होंने भी सिल्क उद्योग का जाल विदेशों तक पहुंचाया।
मुगल शासन काल में रेशम उद्योग को काफी गति प्रदान की गई। लेकिन ब्रिटिश शासन में बुनकरों पर शोषण कर उनकी मजदूरी को काफी नुकसान पहुंचाया गया। कम मजदूरी की वजह से बुनकरों की आर्थिक स्थिति डगमगा गई। आजादी के बाद बुनकरों को लगा की स्वतंत्र भारत में उनका विकास होगा। इसके योजना तो बनाई गई, लेकिन धरातल पर क्रियान्वयन पूरी तरह नहीं हो पाया है।