पाकिस्तान में 25 जुलाई को पाकिस्तान में संसदीय चुनाव होने हैं। एक तरफ देश चुनावी तैयारी में लगा है तो दूसरी ओर यहां के अल्पसंख्यक इस चिंता में हैं कि उनकी बात संसद तक कौन पहुंचाएगा। अल्पसंख्यक समुदाय इस आस में है कि उन्हे एक तरह बेहतर प्रतिनिधित्व मिलेगा।
दरअसल, पाकिस्तान की आबादी के लिहाज से यहां हिंदू, सिख, ईसाई और अहमदी मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। पाकिस्तान की 20 करोड़ की आबादी में अल्पसंख्यक आबादी महज 4 फीसदी ही है। तो वहीं मुस्लिम आबादी की बात करते हैं तो 15 से 20 फीसदी शिया मुसलमान है। देश के अल्पसंख्यकों की हालत ये है कि 342 सीटों वाली नेशनल असेंबली और चार राज्यों की विधानसभा में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की संख्या निर्दलीय के तौर पर बढ़ रही है औऱ ये उम्मीदवार किसी पार्टी से जुड़ना भी नही चाहते।
चुनाव से पहले अल्पसंख्यकों की चिंता यह है कि क्या कट्टर धार्मिक तबके के दलों और समूहों के चलते चुनाव ‘आम’ रह पाएगा। क्योंकि ऐसे संगठनों और उन्मीदवारो की चुनाव में उतरने की तादाद पिछले कुछ चुनावो के मुकाबले जबरदस्त बढी है। साथ ही साथ सुन्नी समुदाय के ऐसे दलों की भी संख्या बढ़ी है, जो पाकिस्तान को शिया मुसलमानों से मुक्ति दिलाने की वकालत कर रहा है।
ऐसे में पाकिस्तान के इस आम चुनाव में अल्पसंख्यकों की मांग यही है कि सरकार कम से कम उन्हे इतनी सुरक्षा तो जरुर मुहैया कराए कि वो बेधड़क अपना वोट ड़ाल सकें।
अल्पसंख्यको के भी अलग-अलग तबको के चुनावी हालात अलग-अलग नजर आते हैं मसलन हिंदु 20 लाख की आबादी के साथ पाकिस्तान में दूसरे सबसे बड़े अल्पसंख्यक है।.इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा रहबर प्रांत में रहता है जो कि काफी गुरबत वाला इलाका समझा जाता है।यही वो आबादी भी है जिसे भारत और पाकिस्तान के बीच की तनातनी का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है लेकिन वोटर के तौर पर बहुसंख्यक इन्हे ही कातर निगाहों से देखते भी हैं।
उधर शिया मुसलमान को पशोपेश में है क्योंकि संसद में शिया की कोई निश्चित भागीदारी तय नही की गई है। जिसके चलते या तो शिया उम्मीदवार को निर्दलीय लड़े या फिर अपनी पार्टी बनाते। जोकि सुन्नी समुदाय की बहुलता के चलते थोड़ा मुश्किल दिखा।
तो वहीं अहमदी मुसलमान इस चुनाव का खुलकर विरोध कर रहा है जिसका बड़ा कारण समझा जा रहा है उन्हें पंजीकृत वोटरों की लिस्ट में एक अलग दर्जा देना।