‘मेरे बचपन के दिन’ तसलीमा नसरीन की चर्चित और विवादास्पद आत्मकथा का पहला भाग है। मूल रूप से बांग्ला में प्रकाशित यह संस्मरण बांग्लादेश के मैमनसिंह में बीते उनके बचपन से लेकर किशोरावस्था तक के अनुभवों को बयां करता है। अपनी निजी स्मृतियों के माध्यम से नसरीन न केवल अपने जीवन की कहानी सुनाती हैं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक, धार्मिक और राजनीतिक ढांचे पर भी तीखी टिप्पणी करती हैं, जिसने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा और कई बार सीमित किया।
यह संस्मरण सीधे, आत्मस्वीकृति से भरे प्रथम पुरुष में लिखा गया है, जिसमें सादगी और भावनात्मक गहराई का अद्भुत संतुलन है। शुरुआती अध्यायों में एक बच्चे की मासूम, जिज्ञासु दृष्टि दिखाई देती है। जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, स्वर अधिक परिपक्व और सजग हो जाता है—लैंगिक असमानता, अन्याय और समाज के बंधनों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता स्पष्ट झलकती है। लहजा कभी कोमल और स्मृतिपूर्ण है, तो कभी पैना और आलोचनात्मक—जिससे यह पुस्तक व्यक्तिगत अनुभवों के साथ-साथ राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी असर छोड़ती है।
किताब के चार बड़े रंग
- पितृसत्ता और महिलाओं पर प्रतिबंध: नसरीन ने ऐसे समाज की तस्वीर उकेरी है जहाँ महिलाओं के पहनावे, आवाजाही, बोलचाल और सोच तक पर नियंत्रण रखा जाता है। इन बंधनों के प्रति उनकी प्रारंभिक खीझ ही उनके आगे चलकर सक्रिय नारीवादी बनने का आधार बनती है।
- धर्म और कट्टरता: एक मुस्लिम परिवार में पली-बढ़ी नसरीन धार्मिक अनुष्ठानों और मान्यताओं से जूझती हैं, जो उन्हें मनमाने और दमनकारी लगते हैं। उनका प्रश्न उठाना विद्रोह मात्र नहीं, बल्कि सत्य और न्याय की खोज का हिस्सा है।
- परिवार और भावनात्मक जटिलताएँ: माता-पिता और भाई-बहनों के साथ उनके रिश्ते स्नेह और तनाव, दोनों से भरे हैं। जहाँ पिता के पेशेवर गौरव से उन्हें गर्व है, वहीं उनका कठोर और अधिकारपूर्ण रवैया खटकता है। माँ के प्रति प्रेम के साथ-साथ उनकी परंपरागत सोच से उन्हें असहजता भी महसूस होती है।
- राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि: संस्मरण का कैनवास बांग्लादेश की आज़ादी से पहले और बाद के राजनीतिक उथल-पुथल से रंगा है। 1971 के मुक्ति संग्राम जैसे घटनाक्रम यहाँ नेताओं की नजर से नहीं, बल्कि एक आम परिवार के अनुभवों के ज़रिये दिखाए गए हैं।
क्यों पढ़नी चाहिए ये किताब?
निर्भीक ईमानदारी – नसरीन अपनी स्मृतियों को मीठा-लपेटकर पेश नहीं करतीं; वे असहज करने वाले सच से भी सीधी भिड़ती हैं।
इंद्रिय बोध से भरपूर विवरण – छोटे कस्बे के बांग्लादेश का स्वाद, गंध, रंग और ध्वनियाँ उनके वर्णन में जीवंत हो उठती हैं।
स्तरित कथावाचन – सतही बचपन की कहानियों के नीचे एक व्यापक कहानी चल रही है—एक नारीवादी स्वर के जन्म की।
विवाद और असर– प्रकाशन के बाद इस किताब ने बांग्लादेश समेत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी बहस छेड़ दी। बहुतों ने इसे महिलाओं की आवाज़ को नए आयाम देने वाला माना, तो कुछ ने इसे अत्यधिक उत्तेजक और परंपरा एवं धर्म के प्रति असम्मानजनक बताया। विवाद चाहे जो हो, इस पुस्तक ने तसलीमा नसरीन को दक्षिण एशिया की सबसे निडर साहित्यिक आवाज़ों में शामिल कर दिया।
यह सिर्फ आत्मकथा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतिरोध का दस्तावेज़ है। यह पुस्तक एक रूढ़िवादी समाज में लड़की के रूप में बड़े होने की सुंदरता और कठोरता दोनों को पकड़ती है। यह एक दुर्लभ, बेबाक और बिना लाग-लपेट का बयान है, जो अक्सर अनकहा रह जाता है। नारीवाद, दक्षिण एशियाई इतिहास या व्यवस्था को चुनौती देने वाले आत्मकथात्मक साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए यह अनिवार्य किताब है।