असहमति की आवाजें: भारतीयों के लिए असहमति कोई विदेशी चीज नहीं, पुराना इतिहास रहा है

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romila thapar book
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‘असहमति की आवाजें’ इतिहासकार रोमिला थापर द्वारा लिखी गई किताब है। इस किताब में वे बताती हैं कि भारतीय असहमति से प्रारंभ से ही परिचित थे और यह विदेश से आई कोई चीज नहीं है। वैदिक समय से शुरूआत करते हुए लेखिका बताती हैं कि कैसे भारत में श्रमण समूह अस्तित्व में आए। वे भक्ति आंदोलन के संतों से लेकर आधुनिक भारत में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की चर्चा इस पुस्तक में करती हैं। लेखिका बताती हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में असहमति का पुराना इतिहास रहा है। उन्होंने असहमति के अहिंसक रूपों पर खास तौर पर प्रकाश डाला है।

इतिहासकार रोमिला थापर इस किताब में दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में दासी-पुत्र ब्राह्मण की असहमति से लेकर जैन और बौद्धों तक, जिन्होंने वैदिक ब्राह्मणवाद से असहमति जताई, भक्ति संतों और सूफी पीरों तक, जो रूढ़िवादिता से असहमत थे, महात्मा गांधी के सत्याग्रह और हाल ही में सीएए विरोधी प्रदर्शनों तक, का जिक्र करती हैं।

इस किताब में थापर गांधी के सत्याग्रह पर बात करती हैं। महात्मा गांधी ने भारत में असहमति की पहचान की और पुराने प्रतीकों और समाजीकरण के साथ असहमति को फिर से जीवंत करने की कोशिश की। लेखिका की राय में, आज हम जो असहमति की आवाज़ें सुन रहे हैं, वे उसी निरंतरता को लेकर चल रही हैं।

लेखिका अहम टिप्पणी के रूप में कहती हैं कि हिंदू धर्म एक “एकल, निरंतर, अपरिवर्तनीय संस्था” नहीं है, बल्कि “सुधारित संस्थाओं की एक शृंखला है, जैसा कि सभी धर्मों के साथ होता है क्योंकि धर्म भी बदलते ऐतिहासिक संदर्भों के साथ बदलाव का अनुभव करते हैं। इतिहासकार बताती हैं कि असहमति किसी भी विस्तृत संस्कृति के निर्माण में अपरिहार्य है।

यह किताब बताती है कि संस्कृतियों का विकास समुदायों के जीवन में कई पहलुओं के चलते होता है और यह कई चीजों का मिश्रण होता है। कोई भी संस्कृति अपने मूल में विलक्षण नहीं होती। संस्कृति एक रूप तब लेती है जब बहुत से पहलुओं को अच्छी तरह से एकजुट किया जाता है।

रोमिला थापर कहती हैं कि हम अक्सर इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि गैर-मुस्लिम आम तौर पर मुसलमानों को मुस्लिम नहीं बुलाते थे, जैसा कि हम आज करते हैं। उन दिनों, संस्कृत और अन्य भाषाओं में उनके संदर्भ यवन या शक या तुरुश्क जैसे नामों की एक अलग श्रेणी पर आधारित थे। ये नाम जातीय थे न कि धार्मिक।

लेखिका बताती हैं कि सवर्ण और अवर्ण समुदायों के बीच सामाजिक दूरी अपरिवर्तनीय थी और यह उन लोगों के बीच भी जारी रही जो इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे या जो सिख बन गए थे। सैद्धांतिक रूप से, इन धर्मों में जातिभेद नहीं था, लेकिन वास्तव में उच्च और निम्न जातियों के बीच एक दूरी थी। दलितों का बहिष्कार जारी रहा क्योंकि धर्म परिवर्तन ने उन्हें जाति से मुक्त नहीं किया।

इस किताब में लेखिका ने हाल में हुए विरोध प्रदर्शनों जैसे सीएए और एनआरसी विरोध प्रदर्शनों पर भी टिप्प्णी की है। यह किताब हमें कुछ प्रतिमानों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करती है।

किताब के बारे में
लेखिका- रोमिला थापर
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 250 रु.