UP Election 2022: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, किसान आंदोलन और वोटों का गणित

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PM Narendra Modi
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UP Election 2022: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। सत्ता पक्ष की ओर से कृषि के क्षेत्र में इन तीनों कृषि काननूों को दूरगामी सुधार की नीयत से लिया गया फैसला बताया जा रहा था। वहीं विपक्ष की ओर से इसे पूंजीपतियों के पक्ष में किसानों के साथ किये जा रहे छलावे के तौर पर देखा जा रहा था। विपक्ष की ओर से मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक भी किसानों के पक्ष में जुगलबंदी करते नजर आ रहे थे और वह भी खुलकर कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे।

नरेंद्र मोदी सरकार ने जिन 3 कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है वो इस प्रकार हैं

  1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020

इस कृषि कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान किया गया था। इस कानून को लागू करकने के पीछे केंद्र सरकार का तर्क था कि इस कानून के प्रावधानों से किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा, क्योंकि बाजार में स्पर्धा बढ़ेगी साथ ही आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी रोकने के लिए उनके उत्पादन, सप्लाई और कीमतों को नियंत्रित रखना था।

  1. कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020

इस कानून के तहत किसान एपीएमसी यानी कृषि उत्पाद विपणन समिति के बाहर भी अपने उत्पाद बेच सकते थे। यानी इस कानून के तहत किसानों और व्यापारियों को मंडी के बाहर फसल बेचने का आजादी होगी और किसानों या उनके खरीदारों को मंडियों को कोई फीस भी नहीं देना होती।

  1. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020

इस कानून के तहत किसान फसल उगाने से पहले ही किसी व्यापारी से समझौता कर सकता था। इस समझौते में फसल की कीमत, फसल की गुणवत्ता, मात्रा और खाद आदि का प्रयोग की क बातें सम्मिलित थीं। यह कानून कहता है कि किसानों को उपज देते समय दो तिहाई राशि का भुगतान किया जाता और बाकी उपज की कीमत 30 दिन में देना होता। इसमें खेतों से फसल उठाने की जिम्मेदारी भी व्यापारी की होती। अगर कोई एक पक्ष समझौते को तोड़ता तो उस पर जुर्माना लगाने का भी प्रवधान जोड़ा गया था।

किसान आंदोलन में अब तर्क यह उठता रहा कि अगर ये तीनों कृषि कानून किसानों के लिए इतने ही लाभदायक थे तो इस मसले पर किसान इतने आंदोलित क्यों थे और पिछले 11 महीने से देश की राजधानी दिल्ली की घेराबंदी क्यों किये हुए थे और अगर यह कानून किसानों के हित में थे तो केंद्र सरकार आखिर क्यों नहीं अपनी मंशा किसानों के सामने स्पष्ट कर पाई।

जिस तरह से इस पूरे मामले पर विपक्ष आक्रामक रहा और किसानों के पक्ष में लामबंद रहा। उससे यह कृषि कानून सवालों के घेरे में थे। वहीं संवैधानिक पद पर रहते हुए मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक ने जिस तरह से बार-बार मोदी सरकार को चेतावनी दे रहे थे कि अगर केंद्र सरकार कृषि कानूनों को वापस नहीं लेती है तो सरकार को चुनाव मैदान में किसानों के विरोध का सामना करना पड़ेगा और सरकार चुनाव हार भी सकती है। सतपाल मलिक ने किन चुनावों के विषय में यह बात कही थी यह तो उन्होंने स्पष्ट नहीं किया था लेकिन आने वाले समय उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं औऱ पश्चिमि यूपी में बड़े जाट लेंड पर किसानों का व्यापक प्रभुत्व है और खुद सतपाल मलिक जाट बिरादरी से ताल्लूक रखते हैं तो उनके बयानों को यूपी चुनाव से ही जोड़ कर देखा जा रहा है।

कोरोना महामारी के कारण आर्थिक मंदी पैदा हुई

कोरोना महामारी के कारण पैदा हुई आर्थिक मंदी के बीच साल 2020-21 में किसानों ने देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अपनी सर्वाधिक 14 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी अदा की। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में एक कृषि आधारित परिवार में औसतन संख्या 6 लोगों की है। वहीं पंजाब में 5.2, बिहार में 5.5 और हरियाणा में 5.3 हैं।
इसके साथ एक तथ्य यह भी है कि ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ का सर्वाधिक लाभ उत्तर प्रदेश के किसानों को मिला है। सरकारी आकड़ों के मुताबिक 25 दिसम्बर 2000 तक केंद्र ने यूपी के 1 लाख 62 हजार करोड़ रुपये किसानों के खाते में पैसे भेजे थे। इस योजना से उत्तर प्रदेश के 2 करोड़ 30 लाख किसानों को फायदा पहुंचा था।

ऐसे में बड़ा सवाल पैदा होता है कि आखिर यूपी के किसान खासकर पश्चिमि यूपी का जाट किसान इन कानूनों के विरोध में क्यों है और इस विरोध के आगामी चुनाव में क्या परिणाम होंगे। दरअसल बीजेपी ने साल 2017 में पश्चिमी यूपी की 110 सीटों में से 88 पर जीत दर्ज की थी, जबकि उससे पहले साल 2012 में इस क्षेत्र में महज 38 सीटों पर विजय मिली थी। यूपी में भाजपा के प्रचंड बहुमत में पश्चिमि यूपी का बहुत बड़ा योगदान था, जो इस चुनाव में जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल और सपा के खाते में जा सकता है।

सतपाल मलिक ने किसानों का समर्थन किया

राज्यपाल सतपाल मलिक ने किसान आंदोलन के पक्ष में यहां तक कह दिया था कि किसान आंदोलन के चलते पश्चिम यूपी में बीजेपी की स्थिति इतनी खराब है कि कोई नेता वोट मांगने के लिए गांवों में जाने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है। दरअसल साल 2012 तक या उससे पहले पश्चिमि यूपी में जाट, गुर्जर, सैनी जैसी तमाम जातियां ज्यादातर अजीत सिंह का पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के साथ खेमेबंदी करती थीं, इनमें थोड़ा बहुत प्रभाव भाजपा, सपा और बसपा का भी था लेकिन साल 2017 में यह जातियां पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में आ गईं और उसी कारण है कि यूपी में भाजपा को बहुतमत मिला और योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी हुई।

अबकी बार समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के साथ मिलकर पश्चिमि यूपी के चुनावी समीकरण को किसान आंदोलन के बहाने अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं और भाजपा को सबसे बड़ा डर यही सता रहा है कि अगर सपा-आरएलडी की खेमेबंदी मजबूत हो जाती है तो उसका सीधा खामियाजा उसे चुनाव में उठाना पड़ेगा और यह बात तय है कि यूपी 2022 के चुनाव में भाजपा की जमीन अगर पश्चिमि यूपी से दरकती है तो इसका नुकसान साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी को उठाना पड़ेगा। पश्चिमि यूपी की कुल 8 लोकसभा सीटों जिनमें सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और बिजनौर शामिल हैं और किसान आंदोलन से इन सीटों पर व्यापक असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है।

ऐसे में सियासी गुणा-गणित के जोड़ में भाजपा इस बात को अच्छी तरह से समझ रही है कि यूपी में चुनाव में किसानों की नाराजगी उन्हें भारी पड़ेगी। अभी हाल में लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के कारण माहौल वैसे भी भाजपा के पक्ष में नहीं दिखाई दे रहा है। यही वजह के डैमेज कंट्रोल के तहत आज केंद्र सरकार ने इन कानूनों के वापसी की घोषणा करके किसानों के प्रति अपनी उदारता दिखाई है। वैसे अगर देखा जाए तो यूपी चुनाव के बाद पंजाब के भी चुनाव भी हैं और पंजाब में भाजपा के सहयोगी रहे अकाली दल ने इसी कृषि कानूनों के खिलाफ एनडीए को छोड़ दिया था तो उस नजरिये से भी भाजपा को पंजाब में अपने रसूख को बचाये रखने का यही अंतिम विकल्प के तौर पर इन कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा।

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