जब 1977 में Rajnarayan ने ‘बरेली के बाजार में झुमका गिरा दिया’

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Rajnarayan
Rajnarayan death anniversary

Rajnarayan भारतीय राजनीति के वो माहिर खिलाड़ी थे, जिनकी वजह से साल 1977 में झुमका गिरा था और वो भी बरेली के बाजार में। जी हां, इमरजेंसी के बाद साल 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए और इंदिरा गांधी अपनी रायबरेली की सीट हार गईं तो फिल्म ‘मेरा साया’ का यह गीत ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में’ हर खास-ओ-आम की जुबान पर था।

साल 1966 में आयी फिल्म ‘मेरा साया’ के इस गीत को लिखने वाले राजा मेंहदी अली खान को भी इस बात का इल्म नहीं रहा होगा कि एक दशक के बाद उनकी कलम से निकला यह गीत भारतीय राजनीति में सबसे बड़े व्यंग्य के तौर शुमार किया जाएगा।

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Rajnarayan राजनीति में राममनोहर लोहिया के हनुमान कहे जाते थे। देसी-भदेस तौर-तरीके से रहने वाले और पहलवानी कदकाठी के राजनारायण ने अपने एक राजनीतिक दांव से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ऐसा चित किया कि उन्होंने 25 मई 1975 को देश पर इमरजेंसी थोप दी।

मरते दम तक अपने सिद्धांतों पर अटल रहने वाले राजनारायण के बारे में राम मनोहर लोहिया कहते थे कि “जब तक राजनारायण जैसे लोग हैं, देश में तानाशाही असंभव है।” जबकि कमाल देखिए कि लोहिया के इस कथन के बाद देश में इमरजेंसी भी लगी और उसकी जड़ में भी राजनारायण रहे।

1971 में Rajnarayan ने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था

दरअसल साल 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में बांग्लादेश का जन्म हुआ और इंदिरा गांधी की छवि विश्वस्तर पर एक मजबूत नेता के तौर पर उभरी। इसी बात को मद्देनदर में रखते हुए इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषण कर दी। रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण ने पर्चा भरा।

चुनाव बाद रिजल्ट आया और इंदिरा गांधी ने Rajnarayan को 1 लाख से अधिक वोटों से हरा दिया। अब राजनारायण चूंकि पहलवान थे इसलिए इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। इस चुनावी हार को वो कोर्ट में घसीट ले गये।

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Rajnarayan & ShantiBhushan

मार्च 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में आजाद भारत का पहला मुकदमा चला देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ। खांटी बनारसी और धाकड़ सोशलिस्ट Rajnarayan और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच। राजनारायण की ओर से जाने-माने वाले वकील शांति भूषण ने 1971 के रायबरेली चुनाव में इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके चुनाव जीतने का आरोप लगाया।

इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने सरकारी कर्मचारी यशपाल कपूर को अपना चुनावी एजेंट बनाया था और इंदिरा गांधी के प्रचार के दौरान चुनावी मंच और लाउडस्पीकर लगाने के लिए पीडब्लूडी कर्मचारियों का इस्तेमाल किया। Rajnarayan की ओर से शांतिभूषण ने जज जगमोहन लाल सिन्हा से मांग की कि इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त किया जाए। जस्टिस सिन्हा ने दलीलों को सुनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी कोर्ट में तलब किया।

देश के इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री को कोर्ट में पेश होना पड़ा

18 मार्च 1975 को भारतीय इतिहास में पहला मौका था जब देश के प्रधानमंत्री ने चुनावी धांधली के मामले में कोर्ट में बतौर आरोपी अपने कदम रखे। मुकदमे की सुनवाई शुरू होने से पहले प्रोटोकॉल का मुद्दा उठा कि अदालत में इंदिरा गांधी बाहैसियत प्रधानमंत्री पेश होंगी तो क्या कोर्ट रूम में मौजूद लोग उनके सम्मान में खड़े होंगे तब जज सिन्हा ने कहा कि अदालत में सिर्फ जज का प्रोटोकॉल चलेगा और किसी का नहीं।

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इंदिरा गांधी और जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा

जस्टिस सिन्हा ने कहा कि अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं, इसलिए इंदिरा गांधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए। तकरीबन 10 बजे इंदिरा गांधी अदालत में पेश हुईं। उन्हें कोर्ट में जस्टिस सिन्हा के सामने लगभग 5 घंटे तक अपने निर्वाचन से जुड़े सवालों के जवाब देने पड़े।

12 जून 1975 की सुबह 10 बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मुकदमे में अपना फैसला सुनाया। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा अपने फैसले में Rajnarayan के वकील शांतिभूषण के तर्कों से सहमत दिखाई दिये। राजनारायण की याचिका में जिन 7 मुद्दों पर इंदिरा गांधी को आरोपी बनाया गया था, उनमें से 5 में तो जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राहत दे दी लेकिन 2 मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी करार दिया।

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को 6 साल तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया

जस्टिस सिन्हा ने जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 सालों तक इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध था।

हालांकि जस्टिस सिन्हा ने साथ में इंदिरा गांधी को राहत भी दी और भ्रष्टाचार के आरोप से भी मुक्त करते हुए ‘नई व्यवस्था’ बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया। कांग्रेस ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के इस फैसले पर खूब माथापच्ची की लेकिन पार्टी में उस समय इंदिरा गांधी के अलावा किसी और के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

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इंदिरा गांधी

‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा देने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को सुझाव दिया कि अंतिम फैसला आने तक वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं। बरुआ का कहना था कि प्रधानमंत्री वे बन जाएंगे, लेकिन बरुआ के इस प्लान पर संजय गांधी ने पानी फेर दिया।

संजय ने इंदिरा को समझाया कि प्रधानमंत्री के रूप में पार्टी के किसी भी नेता पर भरोसा न करें। इंदिरा गांधी बेटे संजय के तर्कों से सहमत हो गईं। इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को 11 दिन बाद 23 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी।

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने जस्टिस सिन्हा के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया

सुप्रीम कोर्ट में उस समय गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं। 24 जून को अवकाश पीठ के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने मामले में सुनवाई की और अपने फैसले में कहा कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे।

जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन साथ ही फैसले में यह भी जोड़ दिया कि वो अंतिम फैसला आने तक बतौर रायबरेली की सांसद के रूप में मतदान में भाग नहीं ले सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जय प्रकाश नारायण ने एक रैली की। जेपी ने इस रैली में इंदिरा गांधी से उनका इस्तीफा मांगा।

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जयप्रकाश नारायण

जेपी की रैली में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की लिखी पंक्तियां नारा बन गईं। ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। जेपी ने सेना और पुलिस से अपील की कि वो इंदिरा सरकार से असहयोग करें। जेपी की गर्जना के बाद जनता सड़कों पर उतर आयी।

हालात बेकाबू होते देख इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया। इंदिरा ने वैसे तो इमरजेंसी के लिए जयप्रकाश नारायण के बयान का सहारा लिया लेकिन सच्चाई यही थी कि Rajnarayan के कोर्ट जाने के दांव से चारों खाने चित हो चुकी थीं।

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इंदिरा गांधी

70 के दशक में राजनीति के केंद्र बिंदु बने राजनारायण का जन्म 25 नवंबर, 1917 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के गंगापुर गांव में हुआ था। जमींदार भूमिहार परिवार में पैदा होने वाले राजनारायण के पिता अनंतप्रताप सिंह अंग्रेजों के समय बनारस के महाराजा रहे चेत सिंह और बलवंत सिंह की वंश परंपरा से आते थे। राजनारायण साल 1939 से 1944 तक बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़े और बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे।

साल 1942 में महात्मा गांधी के ‘करो या मरो’ के नारे के साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान Rajnarayan ने 9 अगस्त, 1942 को वाराणसी में अंग्रेजी सरकार की नाक में दम कर दिया। अंग्रेजों ने राजनारायण को पकड़ने के लिए 5 हजार रुपयों का इनाम घोषित किया। 28 सितंबर 1942 को पुलिस की गिरफ्त में आये और साल 1945 तक जेल में ही रहे।

आजन्म विद्रोही स्वभाव के राजनारायण का राजनैतिक कद आजादी के बाद उस वक्त बढ़ा जब 4 मार्च 1953 के दिन उत्तर प्रदेश की विधानसभा में मुख्यमंत्री डॉक्टर संपूर्णानंद को सदन के भीतर मार्शल बुलाना पड़ा राजनारायण को निकालने के लिए। विद्रोही तेवर वाले Rajnarayan का शौक था सत्ता से टकराने का।

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यूपी विधानसभा में बहस के दौरान जब राजनारायण ने अपने उग्र तेवर दिखाये तो मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने उन्हें सदन से बाहर निकलवाने के लिए मार्शल को बुलवाया। भारी-भरकम शरीर वाले राजनारायण का सदन से बाहर निकालने में मार्शलों के पसीने छूट गये।

स्थिति इतनी खराब हो गई कि Rajnarayan जमीन पर लेट गये और उन्हें घसीटते हुए मार्शल बाहर ले गये। इस गुत्थमगुत्थी में राजनारायण का कुर्ता और पायजामा फट गया और जब वो विधानसभा से बाहर निकले तो उनके शरीर पर केवल एक लंगोट बची थी।

60 के दशक में जब राजनारायण राज्यसभा पहुंचे तो वहां भूपेश गुप्त, नाथ पई, मधु लिमये और पीलू मोदी जैसे दिग्गजों से उनका याराना रहा। सरकार जो भी प्रस्ताव लाती, उसके विरोध में सबसे पहले मुंहफट और हाजिरजवाब राजनारायण की आवाज बुलंद होती।

संसद में राजनारायण के होने का अर्थ था सरकार के हर प्रस्ताव का विरोध और वो भी तर्कसंगत और दमदार आवाज में। सदन में Rajnarayan की बुलंद आवाज, मजबूत कद-काठी, सौम्यता का पूरा विपक्ष कायल था।

भारतीय राजनीति में सदैव भयविहीन रहे Rajnarayan

साल 1977 में इमरजेंसी के बाद राजनारायण चुनाव जीते और जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने। राजनारायण के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है कि एक बार उन्होंने बतौर स्वास्थ्य मंत्री अपने मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाया।

मीटिंग में Rajnarayan ने पूछा कि आप लोगों ने किसके आदेश पर लोगों की नसबंदी करवाई? अधिकारियों ने कहा, “सर आप जानते हैं आदेश किसका था।” राजनरायण ने कहा, “नसबंदी के आदेश का कागज दिखाएं।” मीटिंग में मौजूद अधिकारियों ने कहा, “सर हमें मौखिक आदेश था”।

ऐसा जवाब सुनकर राजनारायण फट पड़े। उन्होंने एक टोकरी में बहुत सारे पत्थर मंगवाए और कमरे में मौजूद सभी अधिकारी को एक-एक पत्थर दिया। इसके बाद उन्होंने एक कर्मचारी को कमरे में खड़ा करके उसको निशाना बनाते हुए पत्थर चालने का आदेश दिया। लेकिन किसी के हाथ नहीं उठे।

तब राजनारायण ने कहा कि मेरे आदेश के बाद भी आपने पत्थर नहीं चलाया लेकिन उस वक्त आपको क्या हो गया था कि आप पकड़-पकड़ कर लोगों की जबरन नसबंदी करवा रहे थे।

खैर राजनारायण ज्यादा दिनों तक स्वास्थ्य मंत्री के पद पर नहीं रहे और एक साल के भीतर ही मोरारजी देसाई ने राजनारायण को मंत्रिमंडल से हटा दिया। दरअसल Rajnarayan के फक्कड़ और मस्तमौला स्वभाव के कारण वे किसी संवैधानिक पद में बंध कर रहने वालों में से नहीं थे।

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साल 1980 के चुनाव में राजनारायण ने बनारस के पंडित कमलापति त्रिपाठी के खिलाफ चुनाव लड़ा। एक दिन चुनाव प्रचार के दौरान राजनारायण का आमना-सामना हो गया कमलापति त्रिपाठी से। राजनारायण ने आव न देखा ताव सीधे कमलापति के पास पहुंचे और कुर्ते की जेब में हाथ डालकर सारे रुपये निकाल लिये।

कमलापति त्रिपाठी जब तक कुछ समझ पाते Rajnarayan ने वो पैसे अपने चुनाव संचालक शतरुद्र प्रकाश की ओर बढ़ाते हुए कहा, “लो, आज के खाने और जीप में पेट्रोल डलवाने के पैसे का जुगाड़ हो गया!” कमलापति त्रिपाठी ने मुस्कुरा कर कहा, “चुनाव अच्छे से लड़ो।”

दूसरे दिन कमलापति त्रिपाठी के वाराणसी स्थित औरंगाबाद मुहल्ले में राजनारायण की एक सभा थी, उस जमाने में विरोधियों पर टमाटर, स्याही और अंडे आदि फेंकने का रिवाज तो था नहीं, अचानक कमलापति त्रिपाठी की हवेली से कुछ पत्थर आकर गिरे।

सभा में भगदड़ होती उससे पहले Rajnarayan ने माइक हाथ लिया और बोले, “घबराइये नहीं, बहू जी (कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति त्रिपाठी की पत्नी) फूलों से हमारा स्वागत कर रही हैं। राजनारायण ने जैसे ही ऐसा कहा, उधर से पत्थर आने बंद हो गये।

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राजनारायण और कमलापति त्रिपाठी

राजनारायण से चल रहे कड़े चुनावी मुकाबले में जब कमलापति त्रिपाठी को लगा कि वो हार जाएंगे तो अंत में परेशान होकर उन्होंने मुस्लिमों का समर्थन पाने के लिए जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अब्दुल्ला बुखारी को वाराणसी बुलवाया।

पूरे चुनाव में कई तरह के दावपेंच चले दोनों तरफ से लेकिन कभी भी शिष्टाचार का उल्लंघन नहीं हुआ। चुनाव के बाद मतगणना हुई और अंततः कमलापति त्रिपाठी ने उस चुनाव में राजनारायण को 24 हजार वोटों से हरा दिया।

31 दिसंबर, 1986 को जब भुक्खड़, फक्कड़ और मस्तमौला Rajnarayan का दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हुआ तब उनके बैंक खाते में महज साढ़े चार हजार रुपये थे। एक बार राजनारायण के लिए राममनोहर लोहिया ने कहा था, ‘राजनारायण का हृदय शेर का है। ऐसे शेर का, जो व्यवहार में गांधीवादी है।’

राजनारायण के निधन के लंबे अरसे बाद 2007 में भारतीय डाक ने उन पर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। राजनारायण एक सच्चे समाजवादी और जिंदादिल राजनेता थे।

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