The Dramatic Decade: सरकारी सुधारों के बहाने आपातकाल का बचाव करते दिखते हैं पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी

1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई, किताब पढ़ेंगे तो आपको ये दिलचस्प किस्सा पढ़ने को मिलेगा कि कैसे प्रणब मुखर्जी को आखिरी मौके पर सरकार में शामिल किया गया। न सिर्फ वे सरकार में मंत्री बने बल्कि आगे चलकर उनको राज्यसभा में सत्तादल का नेता बनाया गया।

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The Dramatic Decade
The Dramatic Decade book review

The Dramatic Decade: देश के पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत प्रणब मुखर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन पर किताबों की एक सीरीज लिखी है। इस सीरीज की पहली किताब है, ‘द ड्रामैटिक डिकेड- द इंदिरा गांधी ईयर्स’। प्रणब मुखर्जी ने इस किताब को कुल 12 चैप्टर में लिखा है। किताब की शुरूआत होती है बांग्लादेश निर्माण से। किताब में प्रणब मुखर्जी ने बताया है कि कैसे 1971 में ऐतिहासिक चुनावी जीत के बाद इंदिरा गांधी का भारतीय राजनीति में दबदबा बन चुका था। उसी साल भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश मुक्तियुद्ध, हुआ और इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत की जीत हुई और पूर्वी पाकिस्तान आज का बांग्लादेश बन गया।

प्रणब मुखर्जी ने बांग्लादेश बनाए जाने की जरूरत को न सिर्फ तत्कालीन स्थितियों के संदर्भ में बल्कि आजादी के पहले की परिस्थियों के मद्देनजर बताया है। बंटवारे के समय बंगाल में मुस्लिम बहुसंख्यक थे। पाकिस्तान के नाम पर बंगाली मुसलमानों ने भले ही देश का बंटवारा कर लिया हो लेकिन पाकिस्तान में भी बंगाली मुसलमानों की स्थिति दयनीय थी। पाकिस्तान की सारी समृद्धि उसके पश्चिमी हिस्से में थी न कि पूर्वी हिस्से में, जिससे बंगाली मुसलमानों के मन में अंसतोष पैदा हुआ।

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शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में आवामी लीग ने पाकिस्तान का आम चुनाव जीत लिया था लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और पूर्वी पाकिस्तान में फौज का दमन शुरू हो गया। इसके बाद भारत की मदद से बांग्लादेश ने आजादी हासिल की। किताब को पढ़कर समझ आता है कि कैसे प्रणब मुखर्जी 1971 में बांग्लादेश बनने से बतौर बंगाली प्रभावित हुए और उन्होंने कुछ समय बाद कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ले ली। हालांकि वे 1969 में ही राज्यसभा सांसद बन चुके थे।

प्रणब मुखर्जी शुरू से ही इंदिरा गाँधी के वफादार माने जाते थे और ये बात उन्होंने खुद स्वीकार की है कि इंदिरा गांधी से वे कितने प्रभावित थे। प्रणब मुखर्जी 1973 में इंदिरा गाँधी सरकार में मंत्री बनाए गए और वे कुख्यात आपातकाल के दौरान भी सरकार में मंत्री थे। आपातकाल को लेकर प्रणब मुखर्जी पर भी आरोप लगे कि उन्होंने इस दौरान सत्ता का दुरुपयोग किया। हालांकि किताब की दिलचस्प बात ये है, जो कि मुझे सबसे अच्छी लगी कि कैसे प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में इमरजेंसी को लेकर इंदिरा गाँधी सरकार का बचाव किया है।

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इंदिरा गांधी

हालांकि ये भी सच्चाई है कि प्रणब मुखर्जी ने सरकारी पक्ष रखा है और तत्कालीन सरकार की उपलब्धियों को गिनाया है। प्रणब मुखर्जी की किताब इमरजेंसी का सिर्फ एक पक्ष बताती है, सरकार द्वारा की गयी नाइंसाफी को लेकर किताब खामोश है। मसलन इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की आलोचना प्रणब मुखर्जी ने की है , यहां तक कि जेपी के आंदोलन को भी मुखर्जी ने बेमतलब बताया है। प्रणब मुखर्जी ने जेपी आंदोलन को लेकर कहा है कि ये आंदोलन महज विपक्षी पार्टियों द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए था , इसका देश की जनता की भलाई से कोई खास लेनादेना नहीं था।

देश के पूर्व राष्ट्रपति ने आपातकाल के दौरान उनके मंत्रालय द्वारा किए गए सुधार कार्यों का पूरा ब्योरा दिया है, कहीं न कहीं प्रणब मुखर्जी ने आपाकाल को सरकारी सुधारों के बहाने सही ठहराने की कोशिश की है। मसलन ये लिखना कि आपातकाल के दौरान महंगाई, भ्रष्टाचार पर काबू पा लिया गया और देश ने आर्थिक मोर्चे पर बेहतरीन प्रदर्शन किया। किताब में प्रणब मुखर्जी खुद लिखते हैं कि इंदिरा गांधी ने अचानक क्यों 1977 में चुनाव का एलान कर दिया जबकि वो एक और साल के लिए आपातकाल को खींच सकती थीं। इसके पीछे एक तर्क दिया गया है कि इंदिरा गांधी अपने कामों पर जनता की मुहर चाहती थीं लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। न सिर्फ विपक्ष एकजुट हो गया बल्कि आखिरी मौके पर जगजीवन राम जैसे लोग साथ छोड़कर चले गए। प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में मौकापरस्त राजनेताओं जैसे बाबू जगजीवन राम की आलोचन की है, कि कैसे आपातकाल में इन लोगों ने सत्ता का सुख लिया और आखिर में चुनावी हार देखते हुए इंदिरा गाँधी को धोखा दिया।

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किताब में प्रणब मुखर्जी ने उस समय का भी ब्योरेवार जिक्र किया है

किताब में प्रणब मुखर्जी ने उस समय का भी ब्योरेवार जिक्र किया है जहां सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी सरकार ने शाह कमीशन का गठन किया और प्रणब मुखर्जी से पूछताछ की गयी। ये वो दौर था जब कांग्रेस पार्टी की हार का ठीकरा पार्टी के भीतर इंदिरा गांधी पर फोड़ा जाने लगा था। इंदिरा गांधी न सिर्फ जनता पार्टी सरकार के निशाने पर थीं बल्कि अपनी पार्टी के भीतर भी उनके विरोधी उनको घेरे हुए थे। कांग्रेस की अंदरूनी कलह सार्वजनिक हो चुकी थी और पार्टी फिर से दो फाड़ होने जा रही थी। हालांकि इस समय प्रणब मुखर्जी सरीखे नेताओं ने इंदिरा गांधी के साथ खड़े रहना सही समझा और उनका ये फैसला सही साबित हुआ।

प्रणब मुखर्जी ने बताया है कि कैसे कांग्रेस (आई) का गठन हुआ और कैसे सत्ता में वापसी की तैयारी फिर से की गयी और जमीन पर काम करना शुरू किया गया। किताब पढ़ने के बाद समझ आता है कि प्रणब मुखर्जी को न सिर्फ सरकारी कामकाज की बल्कि संगठन की भी कितनी बढ़िया समझ थी। बाद में जनता पार्टी के कार्यकाल के दौरान इंदिरा सबसे बड़ी विपक्षी नेता के रूप में उभरीं और देश की जनता को समझ आ गया था कि जनता पार्टी के शासन से कोई मुक्ति दिला सकता है तो वो सिर्फ इंदिरा गांधी हैं। हालांकि प्रणब मुखर्जी ने बताया है कि कैसे जनता पार्टी सरकार में सेंध लगाने के लिए उनकी पार्टी राजनारायण और चौधरी चरण सिंह से भी बातचीत कर रही थी। कांग्रेस के इंदिरा गुट ने चौधरी चरण सिंह को बतौर पीएम समर्थन देने का एलान तो किया लेकिन आखिर में हाथ पीछे खींच लिए।

किताब में जनता पार्टी सरकार के आंतरिक विरोधों के बारे में बताया गया है कि कैसे मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम के गुट थे, जिनकी आपस में बनती नहीं थी और बस सत्ता के लिए एक दूसरे के साथ थे । इसके अलावा समाजवादी और संघ के नेताओं के बीच तनातनी थी। मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह दोनों ही महत्वकांक्षी थे और दोनों के टकराव ने 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ कर दिया था।

1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई, किताब पढ़ेंगे तो आपको ये दिलचस्प किस्सा पढ़ने को मिलेगा कि कैसे प्रणब मुखर्जी को आखिरी मौके पर सरकार में शामिल किया गया। न सिर्फ वे सरकार में मंत्री बने बल्कि आगे चलकर उनको राज्यसभा में सत्तादल का नेता बनाया गया।

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