मौजूदा वक्त में राजनीति एक नई राह पर चल पड़ी है। अलग-अलग नीतियों के साथ आगे बढ़ने वाले राजनैतिक दलों में आगे बढ़ने की होड़ इस कदर बढ़ी है कि ना तो उन्हें अपनी नीतियों को बदलने में कोई परहेज है और ना ही दूसरे राजनैतिक दलों को नीचा दिखाने में कोई संकोच। राजनेता आज खुद को सबसे बेहतर दिखाने की चाह में दूसरे दलों के नेताओं को सिर्फ नीचा दिखाने का काम ही नहीं करते, बल्कि व्यक्तिगत आक्षेप से भी पीछे नहीं रहते।

विकास की बात करने वाले राजनीतिक दल, आज विकास के मुद्दों को दरकिनार कर हिंदू-मुस्लिम, तो कभी जातियों में भेद कर वोटों की फसल तैयार करने के हुनर का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। कोई खुद को हिंदुओं का मसीहा बताता है तो कोई खुद की राजनैतिक पार्टी को मुस्लिमों की पार्टी बताकर तुष्टीकरण की राजनीति से बाज नहीं आता।

जनेऊ का महत्व समझने वालों ने भी कभी ये नही सोचा होगा कि राजनीति में जनेऊ पहनकर वोटों की फसल भी तैयार की जा सकती है तो वहीं जालीदार टोपी पहनने वालों को भी लगा होगा कि इसका खास इस्तेमाल इबादत के समय ही होता है। ये कल्पना तो शायद कभी नहीं की होगी कि चुनाव के दौरान इसी टोपी को दूसरे को पहनाकर अपना उल्लू भी साधा जा सकता है। इसे सियासत की नई चाल कहें या बदलते दौर की राजनीतिक मजबूरी?

सब कुछ खुलेआम हो रहा है। क्या करें जनता भोली है या सब कुछ जानते हुए अंजान है! या फिर इस हमाम में कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिसपर आंख बंद कर भरोसा किया जा सके। सियासत गंदी है, ये कहते तो हमने खूब सुना है लेकिन इसमें स्वच्छता कैसे आ सकती है, इस पर कोई बात नहीं करता। ऐसे में जेहन में प्रश्न उठता है कि राजनीति का क्या अब यही दस्तूर है। लोग मजबूर हैं और राजनेता लोगों को लड़ाने में मशगूल हैं !

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