इस समय दुनिया में पर्यावरण को लेकर नीति बनाने वाले प्रमुखों का जमावड़ा मिस्र के शर्म–अल–शेख में लगा हुआ है. दरअसल ये यहां COP-27 में हिस्सा लेने के लिए पहुंचे है. वहीं COP-27 के दौरान, भारत सहित विभिन्न देशों के संघ ने यूरोपीय संघ (European Union- EU) द्वारा प्रस्तावित कार्बन बॉर्डर टैक्स (Carbon Border Tax) का संयुक्त रूप से विरोध किया है.
क्या है कार्बन बॉर्डर टैक्स?
कार्बन बॉर्डर टैक्स (Carbon Border Tax) उत्पाद के उत्पादन से उत्पन्न कार्बन उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर आयात पर एक शुल्क है. यह कार्बन को कीमती बनाकर उत्सर्जन को रोकने के लिए मददगार साबित होते है. इसके अलावा व्यापार से संबंधित उपाय के रूप में यह उत्पादन और निर्यात को प्रभावित करता है.
यह प्रस्ताव यूरोपीय यूनियन (European union) के यूरोपीय ग्रीन डील का हिस्सा है जो वर्ष 2050 तक यूरोप को पहला जलवायु-तटस्थ महाद्वीप बनाने का प्रयास करता है. कार्बन बॉर्डर टैक्स यकीनन राष्ट्रीय कार्बन टैक्स में एक सुधार है. राष्ट्रीय कार्बन टैक्स एक ऐसा शुल्क है जिसे सरकार देश के भीतर किसी भी उस कंपनी पर लगाती है जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग करती है.
क्या है कार्बन टैक्स लगाने का कारण?
यूरोपीय संघ ने वर्ष 1990 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में कम से कम 55 फीसदी की कटौती करने की घोषणा की है. अब तक इन स्तरों में 24 फीसदी की गिरावट देखी गई है. हालांकि आयात से होने वाले उत्सर्जन का यूरोपीय संघ द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में 20 फीसदी योगदान है, जिसमें और भी वृद्धि देखी जा रही है.
इस प्रकार का कार्बन टैक्स अन्य देशों को Green House Gas (GHG) उत्सर्जन को कम करने एवं यूरोपीय संघ के कार्बन पदचिह्न (Carbon Footprints) को और कम करने के लिये प्रोत्साहित करेगा. यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली कुछ व्यवसायों के लिये उस क्षेत्र में संचालन को महंगा बनाती है. यूरोपीय संघ के अधिकारियों को डर है कि ये व्यवसाय उन देशों में अपना व्यवसाय स्थानांतरित करना पसंद कर सकते हैं जहां उत्सर्जन सीमा को लेकर विशेष सीमाएं नहीं हैं. इसे ‘कार्बन लीकेज’ (Carbon Leakage) के रूप में जाना जाता है और इससे दुनिया में कुल उत्सर्जन में वृद्धि होती है.

क्या है मुद्दे?
कार्बन टैक्स को लेकर ‘BASIC’ देशों (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन – Brazil, South Africa, India, China) के समूह ने एक संयुक्त बयान (Joint Statement) में यूरोपीय संघ के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह ‘भेदभावपूर्ण’ एवं समानता एवं ‘समान परंतु अलग-अलग उत्तरदायित्वों और संबंधित क्षमताओं’ (CBDR-RC) के सिद्धांत के खिलाफ है. ये सिद्धांत स्वीकार करते हैं कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए विकासशील और संवेदनशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी (Financial and Technical) सहायता देने के लिए उत्तरदायी हैं.
भारत पर क्या होगी प्रभाव?
यूरोपीय संघ भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. यूरोपीय संघ, भारत में बनी हुई वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि कर भारतीय वस्तुओं को खरीदारों के लिये कम आकर्षक बना देगा जो मांग को कम कर सकता है. यह कर बड़ी ग्रीनहाउस गैस फुटप्रिंट वाली कंपनियों के लिये निकट भविष्य में गंभीर चुनौतियां पैदा कर देगा.
इसके अलावा ये पर्यावरण के लिये दुनिया भर में एक समान मानक स्थापित करने की यूरोपीय संघ की धारणा ‘रियो घोषणा’ के अनुच्छेद-12 में निहित वैश्विक सहमति के भी खिलाफ है, जिसके मुताबिक, विकसित देशों के लिये लागू मानकों को विकासशील देशों पर लागू नहीं किया जा सकता है.
वहीं, इन आयातों की ग्रीनहाउस सामग्री को आयात करने वाले देशों की ग्रीनहाउस गैस सूची में भी समायोजित करना होगा, जिसका अनिवार्य रूप से जरूरी है कि जीएचजी सूची को उत्पादन के आधार पर नहीं बल्कि खपत के आधार पर गिना जाना चाहिये. यह पूरे जलवायु परिवर्तन व्यवस्था को उलट देगी. कई विशेषज्ञ इस नीति को संरक्षणवाद का अलग रूप भी मान रहे हैं.
ये संरक्षणवाद सरकारी नीतियों को दिखाता है जो घरेलू उद्योगों की सहायता के लिये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करता है. ऐसी नीतियों को आमतौर पर घरेलू अर्थव्यवस्था के भीतर आर्थिक गतिविधियों में सुधार के लक्ष्य के साथ लागू किया जाता है. इसमें सबसे बड़ा जोखिम है कि यह एक संरक्षणवादी उपकरण बन जाता है, जो स्थानीय उद्योगों को ‘हरित संरक्षणवाद’ का बहाना बनाकर विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाता है.