देश की राजधानी दिल्ली में हर साल सर्दियों में होने वाली प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने घोषणा की है कि वह शहर में 5,000 एकड़ से अधिक धान के खेतों में पूसा बायो-डीकंपोजर (Bio-Decomposer) का फ्री छिड़काव करेगी क्योंकि इससे सर्दियों के दौरान धान की पराली जलाने और वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी.
दिल्ली में सर्दियों के दौरान होने वाली खराब वायु की सुर्खियां दुनिया के तमाम अखबारों में छाई रहती है. हालांकि इससे निपटने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई प्रभावी तंत्र विकसित नही हो पाया है.
क्या है पूसा बायो-डीकंपोजर?
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) द्वारा विकसित और दिल्ली के पूसा स्थित ICAR परिसर के नाम पर रखा गया बायो-डीकंपोजर अनिवार्य रूप से एक कवक-आधारित (Fungus based) तरल घोल है जो कठोर ठूंठ (पराली का नीचे का बचा हुआ हिस्सा) को इस हद तक नरम कर देता है जिससे इसे खाद के रूप में आसानी से खेत में मिट्टी के साथ मिलाया जा सकता है.
यह कवक 30-32 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पनपता है, जो धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के लिये उपयुक्त तापमान है. यह धान के भूसे में सेल्यूलोज, लिग्निन और पेक्टिन को पचाने योग्य एंजाइम का उत्पादन करता है.
यह फसलों के अवशेष, पशु अपशिष्ट, गोबर और अन्य कचरे को तेजी के साथ जैविक खाद में बदल देता है जिसके चलते खेती के बाद बची हुई पराली और अन्य अवशेष प्रबंधन के लिये इसे एक सस्ती और प्रभावी तकनीक के रूप में देखा जाता है.
क्या है फायदे?
यह डीकंपोजर (Bio-Decomposer) मिट्टी की उर्वरता और उत्पादकता में सुधार करता है क्योंकि ठूंठ फसलों के लिये खाद के रूप में काम करते हैं जिसके कारण भविष्य में खेत में कम उर्वरक की जरूरत पड़ती है.
पराली जलाने से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता पर खासा असर पड़ता है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के अलावा यह मिट्टी में मौजूद उपयोगी बैक्टीरिया तथा फंगस को भी खत्म कर देती है. यह पराली को जलाने से रोकने के लिये एक कुशल और प्रभावी, सस्ती, आसान पहुंच वाली व्यावहारिक तकनीक है.
यह पर्यावरण के अनुकूल और पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी तकनीक है जिससे ये भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्वच्छ भारत मिशन को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी.
क्यों जलाई जाती है पराली? (Stubble Burning)
किसान अगली फसल को बोने के लिये पिछली फसल के अवशेषों को खेत में जला देते हैं.इसी क्रम में सर्दियों की फसल (रबी की फसल) की बुवाई हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा कम समय के अंतराल पर की जाती है इसके अलावा अगर सर्दी की छोटी अवधि के कारण फसल बुवाई में देरी होती है तो उन्हें काफी नुकसान हो सकता है, इसलिये पराली को जलाना, पराली की समस्या से निपटना का सबसे सस्ता और जल्द तरीका है.पराली जलाने की यह प्रक्रिया अक्तूबर के आसपास शुरू होती है और नवंबर में अपने चरम पर होती है, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी का समय भी है.
पराली जलाने से होने वाला नुकसान
खुले में पराली जलाने से हवा में बड़ी मात्रा में जहरीले प्रदूषक निकलते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें भी शामिल होती हैं.
पराली जलने के दौरान ये प्रदूषक हवा में फैल जाते हैं और भौतिक एवं रासायनिक (Physical and Chemical) परिवर्तन से गुजरकर अंततः स्मॉग (धूम्र कोहरा) की मोटी चादर बनाकर हरेक जीव जंतु के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.
पराली जलाने से जलाने से मिट्टी के पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं, जिससे इसकी उर्वरकता कम हो जाती है. इसके अलावा उत्पन्न गर्मी मिट्टी में प्रवेश करती है, जिससे नमी और उपयोगी रोगाणुओं (Microorganism) को नुकसान होता है.
पराली जलाने के विकल्प
पराली का स्व-स्थाने (In-Situ) प्रबंधन जीरो-टिलर मशीनों और जैव-अपघटकों के उपयोग द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन के माध्यमसे भी किया जा सकता है, लेकिन ये तकनीक महंगी और खर्चीली होने के कारण छोटे किसान इसका उपयोग नहीं कर पाते हैं
इसी प्रकार बाह्य-स्थाने (Ex-Situ) प्रबंधन के तौर जैसे मवेशियों के चारे के रूप में चावल के भूसे का उपयोग किया जा सकता है.
बायो एंजाइम-पूसा
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (Indian Agriculture Research Institute) ने बायो एंजाइम-पूसा (bio enzyme-PUSA) के रूप में एक परिवर्तनकारी समाधान पेश किया है. यह अगले फसल चक्र के लिये उर्वरक के खर्च को कम करते हुए जैविक कार्बन और मृदा स्वास्थ्य में वृद्धि करता है.